उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘...ओके! मैं कुछ भी बनूँगा! पर ट्रेन डाइवर नहीं!’ देव ने सिर हिलाया।
‘अब चलो! मेहमानों को खाना खिलाएं!’ देव ने जिम्मेदारी ले ली।
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देव ने पार्टी के कामों में पूरा हाथ बटाया। सजावट की। केक पर मोमबत्तियाँ जलाईं। फिर छोटू से केक कटवाया, मेहमानों को खाना खिलाया, सबको मिठाइयाँ बाँधकर विदा किया।
जहाँ देव पहले बहुत कामचोर टाइप का था, हमेशा काम देखकर भाग लेता था, कभी घर पर कोई काम नहीं करता था। वही देव गंगा से प्रेम हो जाने के बाद अचानक से बड़ा-बड़ा सा हो गया था ....और अधिक परिपक्व हो गया था। मैंने महसूस किया...
अब वो ज्यादातर गंभीर रहता था। हँसता बिल्कुल भी नहीं था। और चुपचाप घर के कई काम बिना कहे ही करने लगता था। घर वाले तो अब चक्कर में पड़ जाते थे कि ये आखिर हो क्या रहा है? देव का लड़कपन अब खत्म हो गया था। वो सारे घर में दौड़ के चलना, उछलना, कूदना, बगीचे में बड़ी-बड़ी गोल-गोल बाहर की ओर निकली हुई भूरे रंग की आँखों वाली पेड़ो पर बैठी हुई ड्रैगनफ्लाई को बड़ी चालाकी से पकड़ना, चाँदनी रातों में पतंगें उड़ाना, भागकर पतंगे लूटना सब कुछ खत्म हो गया था। देव अब बड़ा सा हो गया था।
पर लड़का तो मन से दुखी ही था तो फायदा क्या हुआ बड़ा होने का? मैंने व्यंग्य किया।
सारे मेहमान प्रस्थान कर चुके थे। अब सिर्फ देव ही बचा था जिसने अपने व्रत के कारण अभी तक कुछ नहीं खाया था। मैंने पाया...
‘‘गायत्री! तुम्हारा घर तो बहुत सुन्दर है! पर इतने सारे कमरों मे से तुम्हारा कमरा कौन सा है?‘‘ देव ने पूछा।
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