उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
फिर देव ने पता नहीं क्या सोचा। एक लम्बी साँस भरी और गायत्री की ओर बढ़ने लगा ....एक कदम! दो कदम!... तीन कदम...
अरे! कोई तो रोको इस पागल को। ये कैसा अनर्थ करने जा रहा है?
अन्ततः देव गायत्री तक पहुँच ही गया और देव गायत्री की ओर झुका।
गायत्री हल्का सा पीछे की ओर झुकी। वो देव को एकटक देख रही थी जैसे घूर रही थी कि अब देव उसे किस करेगा।
देव अपने गुलाबी अधरों द्वारा गायत्री के ओठों के ऊपर पहुँचा। गायत्री ने अपनी पलकें बन्द कीं शायद इन पलों को और खास बनाने के लिए।
और ...देव ने आगे बढ़कर गायत्री की ललाट पर; जहाँ उसने नीले रंग की एक छोटी सी गोल बिन्दी लगा रखी थी, को अपने गुलाबी ओठों से काफी बल देकर गड़ाकर चूम लिया ...बड़ी ही शिद्दत के साथ।
‘अरे बाप रे!’ मुझे गजब का आश्चर्य हुआ ये दृश्य देखकर।
‘गायत्री! हिन्दुस्तान में एक पुरूष के होठों का चुम्बन सिर्फ उसकी धर्मपत्नी के लिए होता है ...इसलिए मेरे पास तुम्हारे लिए बस यही है!
गायत्री! इससे अधिक मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है!....’ देव बोला बुदबुदाकर। वो एक बार फिर से भाव-विभोर हो गया था। उसने गायत्री को समझाया।
‘हूँ!’ गायत्री ने प्रतिक्रिया दी।
गायत्री ने बात को समझा। फिर उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट उत्पन्न हुई जैसे उसके मन में कोई बात आई। हदय में कोई विचार उत्पन्न हुआ।
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