उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
दादी
देव ने गंगा के प्यार में पूरी तरह सुध-बुध खो दी। वो पागल सा हो गया। बाँवला सा हो गया। दीवाना सा हो गया। देव अब जंगल-जंगल, नदी-नदी, नाले-नाले घूमने लगा। गोशाला के बड़े-बड़े खेत अब देव के साथी बन गये। प्यार-व्यार, इश्क, मुहब्बत नामक कमबख्त चीज ने देव को बिल्कुल झकझोर के रख दिया। हिला के रख दिया। तोड़-मरोड़ के रख दिया। मैंने जाना....
विषैले नाग के फन जैसे काले बादल डरावने बादल आसमान में गरजते रहे, घनघोर बारिश करते रहे, बिजली चमकती रही, बाढ़, सैलाब और तूफान आते रहे जिसे देखकर कोई भी अपनी जान बचाने के लिए किसी जगह छुप जाये। पर देव कहीं भी न छुपा। उसे अपनी जान की भी अब परवाह न थी।
देव को अब सर्दी-गर्मी का कुछ भी अहसास नहीं रहता था। अब उसे होश नहीं था कि आसमान से भीषण आग बरस रही है या मूसलाधार पानी। देव का तन मन गोशाला में पड़ने वाली भीषण बारिश से भीगता जाता। बारिश की ठण्डी-ठण्डी बूँदें धनुष से निकले किसी नुकीले तीर की तरह देव के नाजुक शरीर को भेदने लगे। पर देव बेसुध था। होश में था ...फिर भी गंगा के प्रेम में बेहोश।
‘‘पट! पट! पट! पट!‘‘ की आवाज होती जब देव के पैर खेतों में लगी सरसों की नुकीली खूटियों पर पड़ते। देव ने इस दौरान ईश्वर से एक ही चीज माँगी-गंगा। देव को अब कुछ याद ना रहता था। उसे बस एक ही नाम याद रहा ....और वो था ...गंगा! मैंने जाना....
जिस इकलौते देव को सावित्री ने बड़े नाजों से पाला था। जिसे एक छींक भी आ जाये, जो सावित्री तुरन्त व्याकुल हो जाती थी। जिसे हल्का सा बुखार आ जाए तो सावित्री उसे तुरन्त लेकर गोशाला के सबसे अच्छे डाक्टर के पास भागती थी वहीं देव आज अपार कष्ट में था, पर सावित्री कुछ न कर सकती थी।
वो बस खड़ी रहकर सबकुछ ठीक होने की कामना ही कर सकती थी, सब कुछ ठीक होने का बस इंतजार ही कर सकती थी। मैंने पाया....
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