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उपन्यास >> गंगा और देव

गंगा और देव

आशीष कुमार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :407
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9563
आईएसबीएन :9781613015872

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आज…. प्रेम किया है हमने….


ये सारा दुख देव को अकेले ही झेलना पड़ेगा। क्योंकि ये प्यार का दुख है! ये प्रेम का दुख है! जिस पर किसी का कोई जोर नहीं। इस मर्ज पर अच्छी ये अच्छी, महँगी से महँगी दवा भी काम नहीं करती। मैंने ये भी जाना....

देव की ये हालत देखकर मुझे अपार कष्ट हुआ। मैं गंभीर हो उठा। मैंने दिमाग पर जोर डाला कि क्या सच में प्यार-व्यार नाम की कोई चीज होती है? क्या सच में ये ‘प्यार‘ चीज कुछ भी कर सकती है? क्या ये किसी को बर्बाद या आबाद कर सकती है? मैं इसी उधेड़बुन में लगा रहा।

देव अब सुबह निकलते ही कहीं ना कहीं निकल जाता था। रोजाना की तरह देव एक दिन फिर निकला इस ‘प्रेम‘ नामक लाइलाज बीमारी की दवा खोजने।

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आज देव दक्षिण दिशा में बढता चला गया। चलते-चलते देव को ध्यान ना रहा। वो बहुत दूर निकल गया। काफी दूर पर देव को एक दरगाह दिखाई दी। देव उस ओर बढ़ा।

दरगाह के किनारे ऊँचे-ऊँचे बाँस लगे थे, जिसमें चाँद और तारे वाले हरे रंग के कई झण्डे फहरा रहे थे।

देव ने दरगाह में प्रवेश किया और मन्नत में गंगा का प्यार माँगा।

फिर देव को अचानक से लगा कि अब कुछ नहीं होगा। सारा पूजा पाठ, सारी तपस्या सब व्यर्थ है। देव मजार की दीवार से सटकर बैठ गया और खूब जोर-जोर से रोने लगा। देव ने अब सोच लिया था कि अब वो कल का सूरज नहीं देखेगा। देव अब कभी घर नहीं लौटेगा। यह सब सोच-सोच कर देव रोया। बहुत रोया। रोते-रोते देव बेहोश हो गया।

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