उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गुड़िया!... इससे पहले ये लड़का उस चाय वाली के चक्कर में पागल हो जाए, तू इसे किसी तरह पटा ले!‘‘ सावित्री बोली।
‘‘मैं तुरन्त ही तुझसे शादी कर दूँगी!
‘‘इसकी एमबीए वाली पढ़ाई में कितने लाख खर्च हुए हैं, मैं ये भी भूल जाऊँगी और तेरे घर वालों से एक रुपया भी दहेज में न लूँगी! मैं तुरन्त ही तेरी देव से शादी कर दूँगी।
‘‘बस गुड़िया! तू इसे किसी तरह राजी कर ले! बेटी!‘‘ जैसे सावित्री ने गुड़िया से गुहार लगाई। उसे समझाते हुए.....
‘‘ठीक है मौसी!‘‘ गुड़िया बोली।
सवित्री ने गुड़िया को ढेर सारे पैसे दिये और अच्छे कपड़े बनवाने को कहा। गुड़िया ने डार्क रंग वाले अनेक सलवार-सूट खरीदे और दर्जी से फिटिंग में सिलने को कहा। दर्जी को क्या? उसे पैसे चाहिए थे। उसने सिल दिऐ खूब कसे-कसे फिटिंग वाले सूट। मैंने जाना....
अब गुड़िया ने देव को पटाना शुरू किया। देव गंगा के प्रेम वियोग में ऐसा पगलाया था कि सुबह के चार बजे उठकर ही छत पर चला जाता था। अब गुड़िया भी सुबह के चार बजे उठने लगी। अब गुड़िया सुबह ही उठ जाती और देव के लिए दूध वाली चाय बनाकर छत पर ही ले जाती। मैंने देखा....
....पर देव समझ गया था कि ये सारा खेल उसकी माँ सावित्री का रचाया हुआ है। देव चाय को दूर पर ही रखने को बोलता था। गुड़िया चाय रखकर चली जाती थी।
धीरे-धीरे गुड़िया ने रसोई पकड़ी और देव के लिए खाना बनाना शुरू किया। गुड़िया ने घर पर यूँ ही चुनरी के बिना ही घूमना शुरू किया जिससे देव की नजर गुड़िया के भरे-पूरे, गोरे-चिकने बदन पर पड़े और देव की तपस्या जो वो गंगा के लिए कर रहा था टूट जाए। देव गुड़िया से शादी कर फिर से नार्मल जिन्दगी जीने लगे। गुड़िया ने सोचा।
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