उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
गुड़िया देव को आसक्त नजरों से देखती। जहाँ गंगा के पास वक्षस्थल नाम की कोई चीज नहीं थी वहीं गुड़िया के वक्षस्थल थे सुडौल और पुष्ट, जिसे देखकर काई भी लड़का पागल हो जाए। मैंने नोटिस किया....
‘‘देव! खाना सामने रखा है, चाहो तो खा लो!‘‘ मैंने देव को विचलित करना चाहा....
‘‘कब तक गंगा का इन्तजार करोगे? वो लड़की तो पागल है! गंगा के चक्कर में रहोगे तो बस तपस्या ही करते रह जाओगे!
‘‘अभी गुड़िया का नाश्ता कर लो, बाद में गंगा का खाना खाते रहना!‘‘ मैंने देव की परीक्षा लेनी चाही....
देव ने मुझे आँखें दिखाईं, बड़ी जोर से। मैं डर गया...
....और जब खाना खत्म हो जाता तो गुड़िया को मजबूरी में जाना पड़ता। पर फिर भी गुड़िया मैदान पर डटी रही। फिर एक दिन बहुत बड़ा बम फटा। गुड़िया का मनोबल पीक प्वाइन्ट पर पहुँचा। और एक दिन गुड़िया ने देव का अन्डरवियर धो डाला.... वो भी अपने हाथों से। मैंने देखा....
‘‘हाय री गुड़िया! ये तूने क्या किया?‘‘ मैंने गुड़िया से पूछा प्रतीकात्मक रूप में।
अगर कोई लड़की किसी लड़के का अण्डरवियर धो दे तो समझ लो मामला सीरियस है। मैंने सोचा...
‘‘गुड़िया!‘‘ देव बड़ी जोर से चिल्लाया।
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