उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘हमें गंगा में अपना भगवान दिखाई देता है... अगर हमें गंगा ना मिली तो हम किसी भगवान की पूजा नहीं करेगें!...‘‘ देव बोला एक बार फिर से कठोर शब्दों में।
‘‘अस्वीकार कर देंगें सारे देवताओं को!‘‘ जैसे देव का अब देवों के देव महादेव से ही बैर हो गया।
‘‘....और अब हम शिवालय तभी लौटेंगें जब गंगा हमारे साथ होगी!‘‘ हमेशा नरम-नरम रहने वाले देव ने गरम-गरम होकर कहा।
देव ने शिव की पूजा की आखिरी बार। दूध से अभिषेक किया। पुष्प चढ़ाए। आरती की। और वापस घर की ओर प्रस्थान किया।
पर ये क्या? देव को तुरन्त ही पछतावा हुआ कि हमेशा शीतल और शान्त रहने वाला देव इतना आक्रामक व कठोर कैसे हो गया? गंगा के प्यार मे देव इतना स्वार्थी और अंधा हो गया कि उसने शिव को छोड़ने की बात ही कह डाली। देव को बहुत अफसोस हुआ, पछतावा भी हुआ। पर करे भी क्या बेचारा? उसे गंगा में अपना भगवान जो दिखता है! इसलिए सभी को क्षमा कर देने वाले शिव देव को भी क्षमा कर देंगें। मैंने सोचा....
ना कुछ पूछा ......
ना कुछ माँगा ....
तूने दिल से दिया ...जो दिया ....
ना कुछ बोला ....
ना कुछ तोला ....
मुस्करा के दिया ....जो दिया ....
तू ही धूप ...तू ही छाया.....
तू ही अपना पराया.....
और कुछ ना जानू ....बस इतना ही जानू ......
तुझमें रब दिखता है ....
यारा मैं क्या करूँ?
तुझमें रब दिखता है ....
यारा मैं क्या करूँ?
सजदे सिर झुकता है.....
यारा मैं क्या करूँ?
तुझमें रब दिखता है ....
यारा मैं क्या करूँ?....
देव ने गाया दुखी स्वर में। मैंने सुना...
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