उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
अरे भोलेनाथ! अब तो समाधी से जागो। हीरो तो डेड एन्ड पर पहुँच गया है। वो टपकने वाला है, मरने वाला है।
अपना डमरू बजाओ और सुपर शक्तिशाली त्रिशूल चलाओ। अगर फिल्म का हीरो मर गया तो पिक्चर खत्म हो जायेगी। तो.... आखिर फायदा क्या हुआ तुम्हारे भगवान होने का?
आखिर फायदा क्या हुआ तुम्हारे इन दिव्यास्त्रों का जो तुम्हारे भक्त की जान भी ना बचा सकें। मैंने भगवान पर टिप्पणी की। और निवेदन किया कि शीघ्र ही देव की रक्षा करें....
गंगा को मनाने के लिए देव ये संसार नष्ट होने तक प्रयास करेगा, उसकी प्रतीक्षा करेगा। जब तक इस पृथ्वी पर सूर्य उदय होता रहेगा देव अपनी अन्तिम साँस तक दौड़ेगा। देवताओं की पूजा करेगा। जरूरत पड़ी तो उनसे लड़ भी जाएगा। गंगा के बिना देव का जीवन अधूरा है.... उसकी जीवन यात्रा अधूरी है ...। उसकी आत्मा अधूरी है। देव इस बात को जानता था। अब जाना मैंने भी....
गंगा के बिना दिन, दिन न रहा। रात-रात न रही। पूरब दिशा में सूरज का उगना भी डूबने के बराबर हो गया। पानी पानी होते हुए भी गीला न था। हवा ठण्डी होते हुए भी सुहावनी न थी। चीनी मीठी होते हुए भी देव के लिए मीठी न थी। जहाँ देव एक शरीर था, गंगा उसका प्राण थी, उसकी आत्मा थी। देव इस बात को जानता था। अब जाना मैंने भी....
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