उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गंगईया! ...अरे ओ गंगईया!‘‘ कबाड़ीवाले को रोक तो जरा!’ गंगा की माँ रुकमणि ने गंगा को पुकारा।
‘कितना दिन से तोसे कहित है कि कबड़वा बेच डार.... पर तू कभ्भों हमार बतिया नाई सुनिव... पिछले दीवाली पर भी तोसे कहा रहा कि कबड़वा बेचे के लिए पर तू तभ्भो नाई सुनिव...। पर अब आज तो एका बेच डार। थोड़ा बहुत पैसा भी आये जाई....’ रुकमणि बड़े प्यार से बोली गंगा को समझाते हुए।
रुकमणि ने फैसला किया कि कई सालों का फालतू कबाड़ जो अटारी पर इकट्ठा हो गया है उसे बेच देना चहिए। इससे कुछ आमदनी भी हो जाएगी।
‘घर के सारा कबाड़ बेच डार!‘‘ गंगा की माँ रुकमणि ने एक बार फिर गंगा को पुकारा।
गंगा उस समय सो रही थी, जबकि पूरी तरह सुबह हो चुकी थी। मैंने गौर किया....
‘‘का अम्मा? काहे सुबह-सुबह मूंड़ खात हो?
रात भर तो पचास किलो बेसन के लड्डू बैठ के बनायेन है... अभी हमार नींद भी नाई पुरियावा.. और तू उठै का कहत हो?‘‘ गंगा का उठने का बिल्कुल भी मन नहीं था। मैंने नोटिस किया....
‘अरे! बिटिया! ....’ रुकमणि बड़े प्यार से बोली शहद जैसे मीठी आवाज में।
‘कबड़वा बेच डार!.... ओके बाद सोय लिहौ! हम कभ्भो तूका रोकेन हैं?‘‘ रुकमणि ने कहा।
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