उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
गंगा बेमन से उठी। कबाड़ वाले को रोका। गंगा ने अनेक टीन के कनस्तर, प्लास्टिक के डिब्बे, बोतलें, शीशियाँ, मसाले के डिब्बे आदि चीजें बेचीं।
‘बिटिया! उ जौन पुरनवा वाला स्टोप रखा है... वहू उतार ले!... ओका भी बेच डाल... ओका इतना चक्कर बनवावा कि उतने मा तो हमार एक ठू चाँदी की झुमकी बन जात!’ रुकमणि बोली।
फिर गंगा ने एक झाडू ली, तखत पर स्टूल लगाया। और अटारी साफ करने लगी। तभी गंगा की नजर दूर, सबसे किनारे किसी कागज पर पड़ीं। गंगा ने वो कागज उठाया।
‘‘अरे! ये तो देव की चिट्ठी है!‘‘ गंगा ने तुरन्त ही पहचान लिया। गंगा को पता चला कि ये कोई अन्य कागज नहीं, बल्कि देव की लंबी चौड़ी चिट्ठी थी, जिसे गंगा ने क्रोधवश इतनी जोर से मरोड़ा था कि बिल्कुल कागज की एक गेंद सी बन गई थी।
गंगा ने यूँ ही इसे पढ़ना शुरू किया। मगर जैसे-जैसे गंगा चिट्ठी पढ़ती गई, उसके पैरों तले जमीन हिलने सी लगी। गंगा की आखों से पश्चाताप व क्षोभ के आँसू बहने लगे। मैंने देखा....
देव की चिट्ठी इस प्रकार थी...
‘‘प्रिय गंगा!
मैं तुमसे बहुत करता हूँ। मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं जीं सकता। और मैं तुम्हारे बिना मर जाऊँगा, ये भी सच है।‘‘ देव ने बड़ी ही गंभीरतापूर्वक लिखा था रोते-रोते।
‘‘आज हम तुम्हें इस चिट्ठी के माध्यम से सब कुछ बता रहे हैं। उसके बाद तुम अपने रास्ते और हम अपने। न हमारा कभी तुमसे कोई वास्ता होगा.... न तुम्हारा हमसे‘‘ देव ने गंगा से कहा ये लिखकर।
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