उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गंगा! आज हम तुम्हें बताते हैं कि हमारा तुमसे प्रेम करना स्वयं भगवान की देन है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवताओं की देन है ये प्रेम!’ इस प्रकार चिट्ठी आगे बढ़ती है.....
‘‘गंगा! हम जिस दिन मरेंगें, उसी दिन ही खत्म होगा ये प्यार।‘‘ देव ने सच-सच बताया था। फिर देव रो पड़ा था चिट्ठी लिखते-लिखते।
‘‘हम खुद इस प्यार-व्यार से बहुत परेशान हो चुके है। इसी प्यार के कारण हमने पिछले कई महीनों से खाना नहीं खाया है। इसी प्यार के कारण अब हमें दुनियाँ की हर अच्छी चीज भी बेकार लगती है।‘‘ देव ने गंगा को बताया।
‘‘गंगा! भगवान ने हमारी माँग में तुम्हारे नाम का ऐसा गाढ़ा सिन्दूर लगाया है जो छुटाये नहीं छूटता‘‘ देव ने समझाया था। जब गंगा देव से विमुख हो गई थी तो देव ने शिवालय जाकर शिव से कहा था कि उसके दिल मे उठने वाली प्यार की भावनाओं को शिव खत्म का दें, पर ऐसा नहीं हुआ था।
‘‘गंगा! पता नहीं तुम्हें हमारी स्थिति का अन्दाजा भी है या नहीं पर बहुत दर्द होता है हमें!
लगता है जैसे किसी ने हजारों सुईयाँ एक साथ हमारे दिल में चुभो दी हो!.. जैसे किसी ने दुनिया का सबसे जहरीला साँप पकड़ा और उसका जहर निकालकर, सुई में भरकर, घोप दिया सीधे-सीधे हमारे सीने में। कुछ पता भी है तुम्हें?‘‘
देव ने रोते-रोते ये पंक्तियाँ लिखी थीं। देव की दोनों आँखें नमकीन-नमकीन आँसुओं से भीग गयी थीं। वो सिस्कियाँ ले रहा था। देव ने रोते-रोते, चीख-चीख कर उस लड़की से सवाल पूछा था, जो देव के दुख को पहचान ही नहीं पा रही थी... जो अहिल्या की तरह पत्थर की मूर्ति बन गयी थी।
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