उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘...गंगा! ऐसा लगता है जैसे कोई बिच्छू हमें बार-बार डंक मार रहा है और हम उसे रोक भी नहीं सकते।‘‘ देव ने पीड़ा बताई।
‘‘गंगा! पहले जब हम अपने खेतों में सब्जियाँ तोड़ने जाते थे तो कभी कभार ...कहीं महीने में कोई एक काँटा हमारे पैरों में चुभता था, पर अब तो सैकड़ों काँटे हर समय हमें चुभतें रहते हैं! यही महसूस होता है अब हमें!‘‘ देव ने अपना दर्द बयान किया था।
‘‘...सिर में तो इतना दर्द होता है जैसे दिमाग की सारी नसें बस अभी फट जाएंगी! शिव की सौगंध खाकर कहते है गंगा! अब हम जीना नहीं चाहते! ...अब हम मरना चाहते हैं! पर हमें मौत भी नहीं आती!‘‘
देव ने ये सारी पंक्तियाँ लिखी थीं...रोते-रोते। देव ने गंगा से सच्चा प्यार किया था.... इसलिए दर्द भी सबसे हाई लेवल वाला मिल रहा था देव को। मैनें महसूस किया...
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‘‘गंगा! आज हमने जाना है... कितनी बुरी, गन्दी और भद्दी चीज है ये प्यार-व्यार!‘‘ सदैव विनम्र रहने वाले देव ने बड़े ही कठोर शब्दों का प्रयोग किया था पहली बार। मैंने पाया....
‘‘आज! हमसे कोई पूछने आये कि क्या प्यार कर लें, तो हम यही कहेंगें कि चोरी कर लेना, लूटमार कर लेना, किसी को गोली मार देना, यहाँ तक कि किसी का बलात्कार कर देना! पर कभी किसी से प्यार मत करना वरना बेमौत मारे जाओगे। न ही जीं पाओगे! न ही मर पाओगे! .....न जान आयेगी! ...न जान जायेगी! नाली मे पड़े किसी कीड़े की तरह सड़ के रह जाओगे!‘‘ देव को बहुत गुस्सा आ गया था ये सब लिखते समय...
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