उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
गंगा के प्रेम वियोग में देव ने नये कपड़े पहनना, अच्छा खाना खाना, घूमना फिरना सब कुछ बन्द कर दिया था। देव अब घर आये किसी मेहमान से मिलता भी नहीं था। पता नहीं कितने महीने बीत गये देव ने अपने चेहरे पर साबुन तक नहीं लगाया। आइने में अपने आपको देखना भी देव ने बन्द कर दिया था। मैनें नोटिस किया...
पहले देव जब नहाने जाता था तो गुनगुनाता था, तरह-तरह के गीत गाता था पर अब देव बाथरूम का दरवाजा अन्दर से बन्द कर लेता था। पहले खूब रोता था... तब जाकर कहीं पानी के एक-दो मग पानी खुद पर उड़ेलता था। मैंने देखा...
सच में! अब तो ये कहानी सुनाते-सुनाते मुझे प्यार-व्यार से बहुत डर सा लगने लगा है। मेरे हाथ-पैरों में, मेरी त्वचा में एक अजीब सी सिहरन सी होने लगी अब ‘प्यार‘ शब्द सुनकर। अब ‘प्यार‘ शब्द से मेरे अन्दर भय का संचार सा होने लगा है। मैनें महसूस किया....
‘‘गंगा! आज हम जान गये कि प्यार में हारे लोग.... आखिर कैसे जहर खा लेते हैं? कैसे विष खाकर अपनी जान दे देते है?... आज हम सबकुछ जान गये!
गंगा! आज हम जान गये कि प्रेम पूर्ण न होने पर आखिर कैसे लोग दौड़ती हुई ट्रेन के आगे कूदकर स्वयं को टुकड़े-टुकड़े कर लेते हैं! आज हम एक ही बार में सब कुछ जान गये गंगा!‘‘ देव ने गंगा को बताया था।
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