उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गंगा! आकाश में जितने तारे हैं उतना प्रेम करते है हम तुमसे! सूरज में जितनी गर्मी उतना प्रेम करते है हम तुमसे! हवा जितनी तीव्र गति से बहती... उतना प्रेम करते हैं हम तुमसे! हमारा ये मन जितनी तीव्र गति से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचता है.. उतना प्रेम करते हैं हम तुमसे!‘‘ देव ने मोटे दिमाग वाली गंगा को इस प्रकार समझाने का प्रयास किया था जिस देव के प्यार को मात्र एक ढोंग माना था।
‘‘गंगा! राम को सीता से जितना प्रेम... वैसा ही प्रेम किया है हमने तुमसे!.... कृष्ण को राधा से जितना प्रेम... वैसा ही प्रेम किया है हमने तुमसे! शिव को पार्वती से जितना प्रेम वैसा ही प्रेम किया है हमने तुमसे!..... हम कोई हनुमान तो नहीं जो अपना सीना फाड़ कर दिखा दें कि देखो इस दिल में बस तुमही बसती हो!... हम तो बस एक साधारण से इंसान हैं गंगा!‘‘
‘‘गंगा! अगर तुम कहो कि ‘‘ठीक है देव! मैं तुमसे शादी करूँगी मगर इस शर्त पर कि हम लोग कभी एक दूसरे को नहीं छुयेंगे... कभी शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनायेंगे... बल्कि आजीवन कुँवारे ही रहेंगे.... तो एक ही मिनट में हम तुम्हारा ये प्रस्ताव स्वीकार कर लेंगे गंगा! और जीवन में कभी किसी स्त्री की ओर नहीं भागेंगे.... ऐसा प्रेम किया है तुमसे गंगा! देव ने सच-सच लिखा था।
ये पंक्तियाँ पढ़कर गंगा का वहम दूर हो गया। वो भाव-विभोर हो गयी। वो जान गयी कि देव उससे सच्चा प्यार करता है। मैंने देखा...
‘‘पर गंगा! अब तो हमने सारी उम्मीदें ही छोड़ दी हैं कि कभी कोई चमत्कार होगा!... कभी वो दिन आयेगा जब तुम हमें समझ पाओगी!... अब हमारी अन्तिम इच्छा यही है कि जिसे हमने अपना भगवान माना था.... जिसके साथ हम घर बसाकर सारी जिन्दगी खुशी-खुशी रहना चाहते थे उसे आखिरी बार गले से लगा लें!
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