उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
हाय राम! अब क्या होगा? आज इस लड़के की रक्षा कौन करेगा? आज तो देव को भगवान भी नहीं बचा सकते हैं क्योंकि गंगा में ही तो देव को अपना भगवान दिखाई देता है और आज उसी भगवान ने स्वयं वीभत्स रूप धारण कर लिया है!‘‘ मुझे देव की फिक्र सी होने लगी....
फिर गंगा झुकी ओर देव के सारे गुलाबी-गुलाबी, पतले-पतले, लीची जैसे मीठे ओठों का रस पल भर में पी गई जैसे भालू ने पंजा मारा और मधुमक्खी के छत्ते को तोड़ के सारा शहद पी लिया आखिरी बूँद तक।
फिर... फिर... फिर... फिर क्या हुआ? मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई.....
फिर गंगा ने दूध का गिलास जो अब देव की नई-नई सास बनी गंगा की माँ रुकमणि लेकर आयी थी देव के लिये, को गंगा ने उठाया और बिजली के बोर्ड की ओर फेंक कर मारा... निशाना लगाते हुए....।
कमरे में जलने वाला वो पीला बल्ब बंद हो गया और गिलास नीचे गिरा!
ध ड़ा म! की आवाज हुई। सभी लोग जो अभी-अभी सोने गये थे, सभी जाग गये।
गंगा की माँ रुकमणि घबरा गई और दौड़ी-दौड़ी गंगा और देव के कमरे पर आई....
‘‘का भवा बिटिया? सब ठीक तो है? कौनों बिलार-विलार तो नाई है’’ रुकमणि ने चिन्तित स्वर में पूछा।
अब इस लड़ाका से बड़ी बिल्ली भला कहाँ मिलेगी? मैंने सोचा....
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