उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
गंगा के बाबू व अम्मा दोनों अच्छी तरह जानते थे कि उनकी भवानी मतलब गंगा बड़ी खुराफातिन टाइप की है। आज रात ये देव को छोड़ेगी नहीं। बिल्कुल कच्चा चबा जाएगी। आत रात गंगा देव को एक मिनट का आराम भी नहीं करने देगी। ये बात सभी लोग जानते थे अच्छी तरह।
पर ये क्या? गंगा को एक बार फिर से गुस्सा आ गया। मैंने देखा....
‘‘हाँ! सब ठीक हैं! तू जाओ हिआँ से!‘‘ गंगा जोर से चिल्लायी। गंगा को गुस्सा आ रहा था कि इतने इमपोर्टेन्ट मौके पर कोई उसे डिस्टर्ब क्यों कर रहा है?
रुकमणि वापस लौट गई और गंगा के बाबू को बताया कि सब कुछ ठीक है, हालात काबू में है, चिन्ता की कोई बात नहीं।
‘‘गंगा! प्लीज... कम से कम आज के दिन तो मत गुस्साओ!‘ धीमी आवाज में देव हमेशा की तरह अपनी चिर-परिचित आवाज में बोला। इसे देखकर गंगा का गुस्सा छू मंतर हो गया। अब गंगा को एक बार फिर से देव पर प्यार आने लगा....।
फिर... फिर... फिर... फिर क्या हुआ? मैंने जानना चाहा...
फिर गंगा देव के बदन पर दक्षिण की दिशा में बढ़ी जैसे कोई डाकू रात के अँधेरे में कहीं डाका डालने जाये... चोरी-2, चुपके-2 घोड़े पे सवार, मुँह में काला कपड़ा बाँधे और कन्धे पर दोनली वाली खतरनाक बंदूक टाँगे हुए। बिल्कुल उसी स्टाइल में। और अंततः गंगा ने एक टापू की खोज कर ली। मैंने पाया....
आज तक इस टापू पर पहुँचने की कोशिश कई लोगों ने की थी पर देव ने ये सोचकर रखा था कि जिस लड़की में देव को अपना भगवान नजर आयेगा, वही इस द्वीप पर कब्जा करेगी। और अंततः गंगा ने इस द्वीप पर अपना कब्जा, अपना अधिपत्य कर लिया।
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