उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
फिर... फिर... फिर...फिर क्या हुआ? मैंने और जानना चाहा....
फिर.. गरम-गरम स्वभाव वाली गंगा चन्द्रमा जैसे शीतल स्वभाव वाले अपने देव के पास आई। गंगा की गरम-गरम साँसों ने देव की ठण्डी-ठण्डी साँसों को जाना पहचाना। उनसे बात-चीत की। उनसे दोस्ती बढ़ाई।
फिर.....
दोनों दौड़े दूर तक कि उनके पाँव उखड़ गये... कि उनकी साँसें फूल गयीं.. कि उनके शरीर अकड़ गये.. कि दोनों के दिलों की धड़कन एक हो गयी... कि दोनो की पलकें बोझिल हो गई जैसे भीग गयीं।
दौड़ते-2 जमीन खत्म हो गयी और समुन्दर आ गया। नमकीन और खारे पानी वाला समुन्दर। और दोनो उस समुन्दर में कूद पड़े डूब मरने के लिए। दोनों का बदन चिपचिपा हो गया। तर-बतर हो गया जैसे आसमान से बारिश हुई और दोनों पर पड़ी। दोनों के शरीर से एक मोहक सी... मादक सी खुश्बू निकली और हवा में बिखर गयी। जो उन्हें दीवाना कर गई एक पल के लिए.. पूरे दिन के लिए.. सारी उमर के लिये... सारे जीवन भर के लिए...।
आज दोनों को.....
बिछुड़ने दो.....मिलने दो
जानने दो ....पहचानने दो
रूठने दो ......मनाने दो
हँसने दो ......मुस्कराने दो
बतियाने दो.....गरियाने दो
फिर.....
लड़ने दो.....झगड़ने दो
रिझाने दो.....खिजाने दो
रीत करने दो ....प्रीत करने दो
सोचने दो ....विचारने दो
चुप रह लेने दो.....कुछ कह लेने दो
आज दोनों को.....
शर्मा लेने दो.....बेशरम हो लेने दो
छूने दो....स्पर्श कर लेने दो
दुख लेने दो.....सुख देने दो
खो लेने दो ...पा लेने दो
टूटने दो.. बिखरने दो.. लेकिन फिर जुड़ जाने दो
अनेक होने दो.....फिर एक होने दो
फिर ...
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