उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
एहसास करने दो....महसूस करने दो
अकड़ने दो ...जकड़ने दो
अगड़ने दो ...पिछड़ने दो
गरजने दो ...कड़कने दो.....फिर बरसने दो
नहाने दो....भीगने दो ...सूखने दो
फैलने दो ...सिकुड़ने दो
आज दोनो को.....
झिड़कने दो ...फिड़कने दो.....
बर्तन में बन रही चाय की तरह -
उफनने दो ...गिरने दो!
जलने दो.....बुझने दो
खोने दो.....ढूँढने दो ...लुकाझिपी खेलने दो
रचने दो ...बसने दो
महकने दो.....बहकने दो
आज दोनों को.....
उड़ने दो.....गिरने दो
तरसने दो.....बरसने दो
रम जाने दो.....एक दूसरे में समा जाने दो
सूरज की तरह गर्म हाने दो.....
चन्द्रमा की तरह ठंडा हो लेने दो
आज दोनों को जल के राख हो जाने दो....
प्रेम की उस आग में जो कुछ समय पहले लगी। आज वो सबकुछ हो जाने दो....जो कभी न हुआ था।
जैसे आज मैंने अपनी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति दी। मैंने पाया....
....ये था चरम सुख.... सुख का आखिरी कोण, आखिरी किनारा। मैंने जाना। यहाँ पर ये भौतिक दुनिया खत्म हो जाती है और शुरू होती है जादुई... रूहानी... सपनीली दुनिया। जहाँ सिर्फ गंगा थी और देव था। और कोई ना था उन दोनों के सिवा। जहाँ ना कोई शोर शराबा था, ना कोई मोटरगाड़ी। सिर्फ प्रकृति थी और कुदरत थी बिल्कुल धुली-धुली नदी के बहते पानी की तरह साफ, ओस की बूँद की परह पवित्र, समुन्दर की गहराई में पड़े हुए सीप में छिपे मोती की तरह दिव्य!
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