उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
दोनों तनहा थे, पर तन्हाई ना थी। दोनो अकेले थे, पर अकेलेपन का नामोनिशान ना था। दो शरीर थे, पर एक आत्मा थी। एक साँवली-साँवली गंगा की, दूसरी गोरे-गोरे देव की। दोनों एक हो चुके थे... दो पल के लिए... सारी उमर के लिए.. पूरी जिन्दगी के लिए.. जन्मों-जन्मों के लिए।
बाप रे बाप! ये दोनों जो बड़े शर्मीले लगते थे बड़े ठर्की निकले। मैंने सोचा अगर यही हालत रही तो कहीं ये दोनों भूख से ना मर जायें। मुझे तो इन दोनों की चिन्ता सताने लगी। मैंने महसूस किया...
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अगला दिन।
सूरज निकला। पंछी चहचहाऐ। रानीगंज के गाँव में सारी चिडि़याँ अपने घास के बने घोंसलों से बाहर निकली। फिर सारी चिडि़यों से अपने नाश्ते के लिए आसमान में उड़ान भरी। उजाला होते ही गाँव के सभी लोग खेतों में गये।
क्यों? क्यों भाई? मैं कुछ समझ नहीं पाया। फिर मैंने देव से पूछा...
‘‘अरे हल्का होने! टायलेट करने! सण्डास करने! इतना भी नहीं समझते?‘‘ देव बोला। मैंने सुना....
फिर रानीगंज की सारी भैंसों ने दूध दिया। दूधवाला दो ड्रम दूध लेकर गंगा की दुकान पर आया।
और अब देव के ससुर बन चुके गंगासागर हलवाई ने एक बार फिर से अपनी दुकान खोली।
‘पाँच लीटर दूध, ठीक इतना ही पानी बिल्कुल नाप के! सूनागाछी चायपत्ती का पाव भर का पैकेट और करीब इतनी ही चीनी!, एक मुट्ठी अदरक कूटकर गंगा के बाबू ने अपने बड़े से एल्यूमिनियम में डाली और फिर धुँआ फेंकती हुई अभी-अभी जलाई हुई भट्टी पर रखी...।
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