उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
और सारे ग्राहकों के लिए एक बार फिर से चाय, समोसा बनाने का काम शुरू किया। मैंने देखा....
‘टे! टे! टूँ! टूँ!....’ सामने सड़क पर मोटर-गडि़यों ने एक बार फिर से आवाजाही शुरू की। शोर-गुल्ला एक बार फिर से होने लगा।
पर ये क्या? गंगा और देव तो सोते ही रहे। मैंने नोटिस किया....
सुबह के सात बजे।
गंगा की माँ मतलब अब देव की सास बन चुकी रुकमणि दोनों नवविवाहितों के लिए चाय लेकर आई...
‘ठक! ठक!....’ रुकमणि ने एक बार धीरे से पुराने स्टाइल वाले दरवाजे मतलब किवाड़ पर दस्तक दी।
पर भीतर से कोई प्रतिक्रिया न हुई।
‘गंगईया!... अरे! ओ गंगईया! तू लोग खात्तिर चाय लायन है! पल्लवा तो खोल!’ वो एक बार फिर से बोली तेज आवाज में अपने प्यार भरे वात्सल्य स्वर में।
पर दोनों बेसुध थे।... शायद रात में काई बड़ा पहाड़ उखाड़ा है। जरूर कोई तीर मारा है! जरूर कोई अमृत-मंथन किया है इन दोनों ने। मैंने अन्दाजा लगाया..
फिर दस बजे।
देव की माँ सावित्री मतलब अब गंगा की सास बन चुकी सावित्री दोनों के लिए एक बार फिर से ताजी-ताजी चाय बनाकर लायी.....
‘देव! दरवाजा खोलिए! आपके और बहूरानी के लिए हम चाय लेकर आए है!’ सावित्री बोली हमेशा की तरह अपनी शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करते हुए मीठी व विनम्र भाषा में।
पर फिर भी दोनों ने दरवाजा ना खोला।
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