उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
लगता है रात में कोई बड़ी मेहनत वाला काम किया है। इसी कारण थकावट कुछ ज्यादा ही चढ़ गई है जो इतना बुलाने पर भी गंगा और देव किसी की आवाज न सुन सके।
आखिर दोपहर के दो बजे देव की आँख खुली। सूरज बिल्कुल सिर पर चढ़ आया था और देव के ससुर गंगासागर हलवाई ने धूप से बचने के लिये वो पीली वाली पन्नी भी तान ली थी। मैंने नोटिस किया...
‘‘गंगा! जल्दी उठो!.... दो बजे हैं!.... सब लोग क्या कहेंगें?‘‘ देव ने जल्दी-जल्दी शर्ट के बटन लगाते हुए... कपड़े पहनते हुए बड़ी हड़बड़ी में कहा।
‘गंगा ने आँख खोली। अब वो भी होश में आयी। लोगन का जौन कहेक हैं कहन देओ!... अब हमरे पास लाइसेंस है!‘‘ गंगा ने अपने मंगलसूत्र का बड़ा सा सोने का लाकेट फ्लैश किया और अपनी दायीं त्योरी को ऊपर चढ़ाते हुए बोली बड़े हक से।
मतलब? मतलब क्या है इस पागल लड़की का?‘‘ मैं सोच में पड़ गया....
मतलब कि रात में जो सोने का मंगलसूत्र देव ने पण्डित के सामने, गंगा के अम्मा-बाबू के सामने और समस्त समाज के सामने जो गंगा के गले में अपने हाथों से बाँधा था वो मंगलसूत्र नहीं एक लाइसेंस था जो देव ने खुद गंगा को प्रदान किया था।
अब गंगा जब चाहे, जैसे चाहे देव से प्यार कर सकती थी... वो भी जी भर के। अब गंगा को ना ही देव का और ना ही अपने डेंजर बाबू का डर था। और तो और आसमान में बैठे ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी अब गंगा को नहीं रोक सकते थे। अब एक तरह से देव पर सिर्फ और सिर्फ गंगा का हक था, पूर्ण नियन्त्रण था। मैंने जाना....
.....और गंगा ने देव को खींच लिया एक बार फिर से बिस्तर में। और फिर दोनों ने प्यार किया एक बार फिर से जी भर कर! मैंने देखा....
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