उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
अब शाम के सात बज चुके थे।
शाम ढलने लगी थी। सूर्य देवता की अपनी रोजाना वाली डयूटी समाप्त होने वाली थी। घर के बाहर दुकान पर गंगा के बाबू ने अब वो पीली वाली पन्नी समेट ली थी। अब गंगा और देव दोनों भली-भाँति जाग चुके थे, पूर्ण रूप से चेतन अवस्था में आ चुके थे प्रेम का ये युद्ध लड़ने के बाद। मुझे ज्ञात हुआ....
पर ये क्या? जहाँ आज तक इतिहास में जितने भी महान युद्ध हुए थे उसमें एक पक्ष जीता था और दूसरा पक्ष हारा था पर गंगा और देव के इस प्यार वाले महायुद्ध में ये पहली बार हुआ था कि दोनों ही युद्ध जीत गये थे। किसी की भी हार नहीं हुई थी। दोनों पक्ष जीत गये थे।
पहले तो मुझे शंका थी कि प्यार-व्यार मामूली चीज है पर अब मालूम पड़ रहा है कि ये विशिष्ट, अनोखी और दिव्य वस्तु है। ये कहानी पढ़कर तो अब यही जान पड़ता है मैंने पाया...
गंगा को क्या? सारी ताकत तो देव की खर्च हुई। इस समय देव के पेट में चूहे कूद रहे थे। भूख के मारे उसकी जान निकली जा रही थी।
‘‘गंगा!... मुझे बड़ी जोरों की भूख लगी है!‘‘ देव बोला धीमे से अब अपनी धर्मपत्नी बन चुकी गंगा के कान में फुसफुसाते हुए।
जिसकी बीबी विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने वाली एक असली हलवाइन हो तो क्या भला वो भूख से मर सकता है?
‘‘अम्मा! अपने दामाद खत्तिर खनवा लगाओं!‘‘ गंगा खूब जोर से चिल्लायी हमेशा की तरह अपनी अम्मा पर रोब जमाते हुए मस्ती भरे भाव से।
गंगा की माँ रुकमणि तुरन्त ही दोनों के लिए नई-नई स्टील की थाली में खाना लेकर आयी। गंगा ने पूड़ी का कौर तोड़ा, सब्जी में लगाया और देव को अपने हाँथों से खाना खिलाना शुरू किया।
‘‘पर ये क्या? देव रोने लगा! आँसुओं से देव की आँखें डबडबा आईं....
अरे! अरे! ये दुख वाले आँसू नहीं थे बल्कि सुख वाले थे। मैंने जाना...
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