उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
एक समय तो लग रहा था कि गंगा के प्यार में देव दम तोड़ देगा... मारा जायेगा। पर किसी प्रकार सब-कुछ ठीक हुआ और गंगा ने देव के प्रेम को पहचाना।
अरे यार! ये लड़का रोता बहुत है!
उसी शाम डाकिया एक चिट्ठी लेकर एक बार फिर से गंगा के घर पहुँचा....। चिट्ठी पर स्पीड पोस्ट की मोहर लगी हुई थी। ये चिट्ठी देव की माँ सावित्री के नाम थी....
‘‘सावित्री! मैं तुमसे कहता था ना कि ये लड़का नहीं मेरा दुश्मन पैदा हुआ है! हलवाईयों में शादी करके देव ने मेरा नाम मिट्टी में मिला दिया! मुझे कहीं का नहीं छोड़ा! मुझे निस्तनाबूत कर दिया देव ने!‘‘ देव के डैडी ने लिखा था कड़े शब्दों में। क्रोधवश कलम इतनी जोर से चलायी थी कि लग रहा था कि जरा और दबाव पड़ता तो चिट्ठी का ये कागज फट गया होता। मैंने गौर किया....
‘‘सावित्री!... एक मामूली सा चाय बनाने वाला मेरा समधी कभी नहीं हो सकता! मैं मरते मर जाऊँगा! पर देव के ससुराल वालों से मेरा कोई लेना-देना नहीं!
‘‘देव! ने जो किया उसके लिए भगवान उसे कभी माफ नहीं करेगा!‘‘ उन्होंने लिखा था कठोर शब्दों में।
‘प्यार-व्यार अमीरी-गरीबी देखकर तो होता नहीं है!’ मैंने सोचा देव के पापा की इस बात पर...
सावित्री ने इस चिट्ठी का कोई जवाब नहीं लिखा क्योंकि देव सावित्री के कलेजे का टुकड़ा था और अब गंगा भी। मैंने जाना....
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अगला दिन।
देव ने अलार्म वाली टेबल घड़ी में सुबह पाँच बजे का टाइम सेट किया।
‘पी पी पी पी पी पी!... पी पी पी पी पी पी!...’ जैसे ही सुई बारह पर पहुँची, अलार्म घड़ी तेज आवाज करने लगी। गंगा! जो देव की बाहों मे बड़ी बेफिक्री से लेटी हुई थी उसी निद्रा टूटी...
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