उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘देव! इ कौन चीज है जौन पिपियात है! इतना आवाज करत है?’ गंगा ने पूछा।
‘गंगा! ये अलार्म घड़ी है! इसे मैं दिल्ली में लगाता था सुबह जल्दी उठने के लिए! जब जागिंग करने जाता था। कल हम लोग दोपहर तक सोते रहे थे, याद है? आज कहीं फिर देर न हो जाए इसलिए मैंने इसे लगाया है... क्या तुम मेरे लिए एक कप चाय बनाओगी? मैं दुकान पर जा रहा हूँ!’ देव बोला।
‘अब्बै बनाइत है!’ गंगा ने अपनी करोड़ो रूपयों जितनी कीमती निद्रा को त्याग दिया।
गंगा के बाबू और देव के ससुर जी कोयला भर कर अपनी बड़ी सी भट्टी को एक दफ्ती से हवा देने का कोशिश कर रहे थे...।
‘बाबू! लाइये हमें दीजिए!’ देव ने दफ्ती ले ली और जल्दी-जल्दी हाँककर भट्टी शुरू की। गंगासागर हलवाई अब दूसरा काम करने लगे।
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सावित्री गंगा को प्यार से बहुरानी बुलाती थी। वह कभी गंगा का नाम नहीं लेती थी। सावित्री ने गंगा को किसी जरूरी काम से अपने कमरे में बुलाया था....।
‘माँ जी! आपने मुझे बुलाया?’ गंगा ने सावित्री के कमरे में प्रवेश किया।
‘अरे बहूरानी तुम आ गयीं!.... बहुत अच्छा किया! आओ मेरे पास बैठो!’ सावित्री मुस्कराकर बोली।
सावित्री ने अपना गहनों का संदूक खोला और सोने के कंगन, भारी-भारी झुमकियाँ, हार, कमरबन्द, पायलें, पैर की बिछिया व अन्य गहने एक-एक कर गंगा के हाथों में रखने लगी।
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