उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘बेटी! ये सब हमारे पुश्तैनी गहने हैं जो मुझे देव की दादी मतलब कि मेरी सास ने मुझे दिये थे। जब तक मैं एक बहू थी... इस गहनों पर मेरा अधिकार था। पर अब... मैं एक सास बन चुकी हूँ.. और तू मेरी बहू है... इसलिए अब ये गहने तेरे हैं और अब तू ही इनकी.... जिम्मेदारी संभालेगी.... आज से ये सब तेरे हैं!’ सावित्री ने बड़े प्यार से गंगा से कहा।
‘जी! माँ जी!’ गंगा ने हाँ में सिर हिलाया। मन ही मन गंगा बहुत खुश थी कि अब उसे तरह-तरह के गहने पहनने को मिलेंगे।
‘अच्छा बेटी! जरा गायत्री को भेज देना’ सावित्री बोली।
गायत्री आई।
‘गायत्री... ये तुम्हारे लिए’ सावित्री ने गायत्री को एक सोने की चमचमाती चैन दी।
‘पर ये आन्टी मुझे क्यों दे रहीं हैं’ गायत्री कुछ समझ नहीं पाई।
‘बेटी!... तूने जो इतने दिन देव को सहारा दिया, उसका सुख-दुख बाँटा.. उसका साथ निभाया... उसी सब के लिए है ये’ सावित्री मुस्कराते हुए बोली।
‘आन्टी!... ये चैन देकर आप देव से मेरी दोस्ती की कीमत लगा रही हैं... उसे पैसों में तोल रही है’ गायत्री थोड़ी नाराज हो गयी। उसने इस बात को माइन्ड किया। सच में उसने समझा कि देव की अमीर-पैसे वाली माँ गायत्री को उसकी देव को की गई मदद की कीमत दे रही है।
‘अरे! नहीं नहीं बेटा!’ सावित्री ने तुरन्त स्थिति को संभाला।
‘बेटी!.. मेरा ऐसा बिल्कुल भी मतलब नहीं है।’सावित्री ने स्पष्ट किया।
‘जी!’ गायत्री ने सुना।
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