उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘गायत्री!... बेटी बता अगर आज को मेरी कोई बेटी होती तो कितनी बड़ी होती?’ सावित्री ने अपनी चिर-परिचित अंदाज में गायत्री से पूछा।
‘बिल्कुल मेरी जितनी बड़ी’ गायत्री तुरन्त ही चहककर बोली।
‘...अच्छा गायत्री अब बता कि क्या रिश्ते सिर्फ खून के रिश्ते से ही बनते है?’ सावित्री ने बड़ी चतुराई से ये प्रश्न पूछा।
‘क्या बिना खून के रिश्तो का कोई मोल नहीं है? उनकी कोई वैल्यू नहीं?’ सावित्री ने पूछा।
‘नहीं!... बिना खून के रिश्तो के बिना भी मजबूत रिश्ते बन सकते है!’ गायत्री सोच विचार करते हुए बोली अपना बीएससी वाला साइंस वाला दिमाग लगाती हुई।
‘गायत्री!...अब बता अगर मैं तुझे अपनी बेटी बना लूँ!.. और फिर ये चैन तुझे दूँ तो लोगी?’ सावित्री ने एक बार फिर मुस्कराकर पूछा।
‘जी!’ पतली-दुबली गायत्री ने हाँ में सिर हिलाया।
सावित्री ने गायत्री को चैन अपने हाथों से पहना दी। और गायत्री को बड़े वात्सल्य के साथ उसके माथे पर चूम लिया। मैंने देखा...
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पहला हफ्ता- देव ने कस्टमर्स को टेबल पर चाय, समोसा, व सब्जी-पूडि़याँ देने का काम सीखा।
दूसरा हफ्ता- देव ने पूडि़याँ बेलने और समोसा बाँधना सीखा।
तीसरा हफ्ता- देव ने समोसे का मसाले वाला आलू बनाना सीखा।
चौथा हफ्ता- देव ने पूडि़यों के साथ परोसे जाने वाली मसालेदार सब्जी बनाना सीखी।
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