उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
देव ने पढ़ी-लिखी, अमीर, कुलीन व ऊँचे घराने से सम्बन्ध रखने वाली सावित्री की नाक पूरी तरह कटा दी थी। देव!... अब एक सचमुच वाला एक हलवाई बन गया था। मैनें साफ-साफ देखा....
चमचमाते शहर दिल्ली में रहने का सपना अधूरा रह गया था। पर देव हार कर भी जीत गया था। मैंने ये भी जाना...
देव के पास गंगा थी। देव के पास उसका भगवान था। देव के पास उसका प्यार था। देव के पास एक लड़ाका बीवी थी जो सलमान खान की तरह उसकी बाडीगार्ड थी। वही दूसरी ओर देव का ससुर रानीगंज का सबसे डेंजर आदमी था जिससे लोग थर! थर! काँपते थे। इसलिए देव अब बिल्कुल सुरक्षित हाथों में था। पूरे रानीगंज में किसी भी मजाल नहीं थी कि सीधे-साधे देव को कुछ उल्टा सीधा बोल दे। वहीं गंगा को देव से सच्चा प्यार मिला था। मुझे ज्ञात हुआ...
0
पर ये क्या? गंगा अब देव को लेकर बहत पजेसिव हो गई थी। अब गंगा को हमेशा यह डर सताता था कि कही कोई लड़की देव को उससे न छीन ले। इसलिए अब वह बहुत सावधान हो गई थी। बहुत सतर्क रहती थी हमेशा.....।
गंगा को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं था कि कोई भी सुन्दर लड़की देव से बात करे। तो अब जब कोई जवान, खूबसूरत लड़की दुकान पर सब्जी-पूड़ी लेने के बहाने आती थी और अपने हैंडसम देव को जरा सा भी आँख भरकर देखती थी तो.......
‘‘का बहिनी? तोहार ज्यादा दिमाग खराब है? जाइके आपन माल का ताड़ो... समझिव!‘‘ गंगा अपना बड़ा सा सिर सुरसा की तरह हिलाती थी।
‘‘दूसर के माल पर नजर नाही! चलो फुटो हियाँ से! इ सिर्फ हमरा है सिर्फ हमरा! बात समझ में आई कि नहीं!!‘‘ गंगा देव पर अपना पूरा हक जताती थी। वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को दाएँ-बाएँ करती हुई बोलती थी।
|