उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘....नहीं तो पड़ेगी एक चप्पल, दिमाग शुद्व हो जाएगा! समझिव!!.....
हट्ट्ट्ट्ट्ट् !‘‘ गंगा कहती थी।
ये देख-देख मुझे बड़ा मजा आता था। मेरा रोम-रोम खिल उठता था।
देव को अब कोई मतलब नहीं रह गया था दुनियादारी से। मैंने जाना....
देव को अब कोई मतलब नहीं रह गया था कि देश में अब कौन सी सरकार बन रही है काँग्रेस, भाजपा, या बीजेपी। देव को अब कोई मतलब नहीं था कि सोने का भाव बढ़ रहा है या घट रहा। देव को अब नहीं जानना था कि मुम्बई का स्टाक मार्केट बढ़ रहा है या घट रहा।
देव को अब बस सुबह के आठ बजे तक जलेबियाँ और समोसे और नौ बजे तक सब्जी-पूड़ी तैयार करने की ही चिन्ता लगी रहती थी। वो हर समय छोटू, भोला और ननके पर चिल्लाता रहता था और आखिरकार अपना सारा काम राइट टाइम पर करवा ही लेता था। मैंने देखा....
देव होली, दिवाली, रक्षाबन्धन, जनमाष्टमी आदि प्रमुख त्योहारों में अपने ससुर गंगासागर हलवाई के साथ मिलकर लाल और सफेद रंग के बड़े-बड़े पाण्डाल लगाता था जो देखने में बहुत आकर्षक लगते थे। मैंने पाया....
जहा गंगा का बाबू अपने रूखे व डरावने व्यक्तित्व के कारण लोगों में कम मशहूर था, वहीं सदा मुस्कराने वाले देव की मोहक मुस्कान पर जैसे पूरा रानीगंज लट्टू था।
देव पूरे रानीगंज में बहुत मशहूर हो गया था। रानीगंज का बच्चा-बच्चा भी देव को जानता था।
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