उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव जहाँ एक बार हँस देता था तो लोगों पर जैसे जादू हो जाता था। जो कस्टमर आधा किलो मिठाई लेने की सोच के आता था वो एक किलो खरीद लेता था, जो एक किलो मिठाई खरीदने की सोच के आता था तो डेढ़ किलो खरीद लेता था। अब रानीगंज का हर निवासी गंगा की दुकान से ही मिठाइयाँ खरीदता था। इस प्रकार गंगा की दुकान का मुनाफा अब पहले से डबल हो गया था। मैंने ये भी जाना....
पढ़ाई लिखाई में शुरू से ही होशियार देव ने मिठाइयाँ बनाने का सारा बारीक काम सीख लिया था। गोशाला में जो लड़का गंगा से मिलने से पहले एक नम्बर का कामचोर था, किसी को एक चम्मच तक उठाके नहीं देता था, अब वही देव सुबह से शाम तक सैंकड़ों लोगों को खाना खिलाता था। मैंने देखा....
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शादी के बाद भी गंगा का स्वभाव आक्रामक ही रहता था। कई बार दिन के उजाले में, भरी दोपहर में मिठाइयाँ बनाने का निर्जीव और बोरिंग काम करते-करते गंगा का मन ठर्की हो जाता था। गंगा का मन मिठाई खाने का करता था।
‘‘नहीं! नहीं! अपनी दुकान की वो खोये वाली मिठाई नहीं, बल्कि देव की वो सुपर मीठी मिठाई। तेज-तर्रार, खुराफातिन, और सूर्पणखा जैसी शैतान प्रवृत्ति गंगा जानबूझकर किसी बर्तन को जमीन पर पटक देती थी धड़ाम से।
बेचारा देव बर्तन गिरने की आवाज सुनकर घबरा जाता था, वो दुकान के सारे काम छोड़ कर भीतर की ओर भागता था कि कहीं लापरवाह गंगा नल के पास जमी काई पर फिसलकर कहीं गिर तो नहीं पड़ी? कहीं गंगा को चोट-वोट तो नहीं लग गयी?
पर ये क्या? गंगा देव का हाथ कस कर पकड़ लेती थी जैसे पुलिस चोर का हाथ कस कर पकड़ ले। और गंगा बढ़ चलती थी अंधकार भरी कोठरी की ओर। कोठरी मतलब ऐसा कमरा जहाँ कम या ना के बराबर प्रकाश जाए।
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