उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘धड़ाम!!!‘‘ की आवाज होती थी पल्ला बन्द होने पर। फिर दोनों प्यार करते थे ज म क र ! मैंने पाया...
ऐसा नहीं था कि सिर्फ गंगा का मन ही ठर्की होता था। कस्टमर्स को वही बार-बार चाय, समोसा, सब्जी-पूड़ियाँ परोसते-परोसते देव का भी मन ठर्की हो जाता था।
‘बाबू! आप दुकान देखिए! हम अभी एक मिनट में आए.....’ देव गंगा के बाबू और अपने ससुर से कहता था।
फिर वो भीतर की ओर भागता था। गंगा, रुकमणि व देव की माँ सावित्री दुकान के लिए मिठाइयाँ बनाने का काम कर रही होती थीं...।
‘गंगा! हमारा मिठाई खाने का मन कर रहा है!!’
देव धीरे स्वर में गंगा के कान में कहता था जैसे बच्चा टीचर से कहे कि आज उसे गुड चाहिए।
‘समझ गैन!!’ शुरू से खुराफातिन दिमाग वाली गंगा देव का आशय तुरन्त ही समझ जाती थी और सिर हिलाती थी।
‘अम्मा! देव हमरे उप्पर एक कविता लिखिन है! वही सुनाऐक चाहत हैं!! हम अब्बै आइत हनन....!!’ गंगा कहती थी और फिर दोनों अपने कमरे की ओर भागते थे।.
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