उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘ब.अतिरिक्त सहायता देकर‘‘ अब उसने उत्तर बताया।
‘‘बैठ जाओ!‘‘ उसने बड़ी तेजी से कहा जैसे कोई दरवाजा धड़ाम से बन्द किया हो।
‘‘आपका नाम?‘‘ उसने पूछा गायत्री से, फिर से अपनी उगंलियो के इशारे से।
‘‘गायत्री साहू!‘‘ गायत्री सकपकाते हुए बोली डरी-डरी सहमी-सहमी सी।
‘‘तो! मिस गायत्री! क्या सोचती हो तुम?‘‘ उसने अपना सिर हिलाया।
‘‘अगर तुम्हारी क्लास में पचास शरारती बच्चें हैं तो क्या तुम उन्हें संभाल लोगी? क्या तुम्हें पूरा यकीन है?‘‘ उस खड़ूस टीचर ने एक बार फिर से पूछा अपनी एक आँख दबाते हुए।
‘‘मैं!....मैं कोशिश करूँगी सर‘‘ बेचारी गायत्री बोली डरते-डरते धीमी आवाज में।
‘‘...और उन बच्चों का क्या जो पीछे वाली बेचों पर बैठ के बातें करते हैं! कैसे उन शैतान व शरारती बच्चों से तुम निपटोगी?‘‘ उस टीचर ने पूँछा एक बार फिर से धमकाते हुए स्वर में।
‘‘नहीं! नहीं मालूम सर!‘‘ गायत्री ने तुरन्त ही हथियार डाल दिया।
‘‘नहीं मालूम! बस एक साल बाद तुम्हें हर दिन चंचल और महाशरारती बच्चों को सॅभालना है! और तुम कह रही हो नहीं मालूम! तुम ये जवाब कैसे दे सकती हो?‘‘ उस कमीने टीचर ने एक बार कहा ऊँचे स्वर में जैसे अभी पतली-दुबली गायत्री को एक कन्टाप मार देगा।
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