उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘हाँ! हाँ! गाओ गाओ! मगर धीमी आवाज में‘‘ वो बोला -
मंगल! मंगल! मंगल! मंगल!
मंगल! मंगल!... हो!....
मंगल! मंगल! मंगल! मंगल!
मंगल! मंगल!... हो!....
जागे नगर सारे! .... जागे है घर सारे!
जागा है.... अब हर गाँव ...
जागे है फूल .... और जागी है कलिया!
और जागी है ... पेडों की छाँव ......
मंगल! मंगल! मंगल! मंगल! ....
मंगल! मंगल!... हो! ......
मंगल! मंगल! मंगल! मंगल! ....
मंगल! मंगल!... हो……!
पूरा क्लास रूम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। मैंने सुना……
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‘‘गायत्री देखो! मेरी कहानी अखबार में आयी है!‘‘ देव ने गायत्री. को कहानी दिखाई
ये पहला मौका था...जब देव की कहानी अखबार में छपी थी।
‘‘बढि़या!‘‘ गायत्री. को भी खुशी हुई जब उसने कहानी पढ़ी।
‘‘देव! तुम कहानी कैसे लिख लेते हो? गायत्री ने पूछा।
‘‘बस ऐसे ही सोचते-सोचते‘‘ देव बोला।
पतली दुबली श्रीदेवी मतलब गायत्री मुस्करायीं। गायत्री के गोरे-गोरे गालों में गढ्ढे पड़े। मैंने देखा...
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