उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘फिर बच्चा हो जाऐं। जिन रिश्तेदारों के बच्चों की शू-2 और पोट्टी देखकर भागता रहा.....अब उसे भी उठाना पड़े!‘‘
‘‘छी! कितना गंदा काम है?‘‘ देव ने बड़ा सड़ा सा मुँह बनाया जैसे उसे उल्टी आ रही हो।
‘‘ये तो वही बात हुई आ बैल मुझे मार!
ये तो जानबूझकर गढ्ढे में कूदने वाली बात हुई!‘‘ देव बोला
गायत्री और संगीता को बड़ा आश्चर्य हुआ।
‘‘इसलिए ना बाबा ना! मुझे नहीं करनी शादी!‘‘ देव बोला
‘‘सारी दोस्ती खत्म! सारा घूमना बन्द! टाइम से जाओ! टाइम से आओ! पाबन्दी ही पाबन्दी! नियम कायदों की भरमार! जैसे कोई राष्ट्रपति शासन लागू हो गया हो!‘‘
नहीं! नहीं! मुझे नहीं करनी शादी! ....बेकार बकवास चीज है ये‘‘ देव ने आलोचना की।
‘‘हा! हा! हा!‘‘ गायत्री और संगीता ये बात सुन बड़ी जोर से हँस पड़ी। मैंने भी सुना....
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एक हफ्ता बीता।
देव को कुछ अजीब सा महसूस होने लगा। गंगा! जो हमेशा तेज आवाज में बोलती थी। एक लाइन की बात को नमक मिर्च लगाकर ...बढ़ा चढ़ाकर सौ लाइन की कर देती थी, जिसकी आवाज अब देव ने एडाप्ट करना सीख ली थी, अब वो आवाज देव के कानों को नहीं सुनाई पड़ रही थी। गंगा क्लास से अदृश्य रही।
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