उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘अच्छी लगने से क्या तात्पर्य है देव?‘‘ जैसे शिव ने प्रश्न किया।
‘‘ ....मतलब कि जब वो हमसे बात करती है तो मन करता है और बात करे! जब वो हँसती है तो मन करता है कि और हॅसे!‘‘ देव ने बताया
‘‘ ....पर शिव! जिस दिन वो पढ़ने नहीं आती, हमें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता, क्लास में तो हमारा बिल्कुल भी बैठने का मन ही नहीं करता‘‘ देव ने दुविधा बताई।
‘‘अच्छा!‘‘ जैसे शिव को भी आश्चर्य हुआ ये बात जानकर।
‘‘देव!‘‘ जैसे शिव ने देव को पुकारा बड़े प्यार से।
‘‘ ....कहीं तुम्हें उस लड़की से प्रेम तो नहीं हो गया?‘‘ शिव ने प्रश्न किया।
‘प्रेम? ...’ देव चक्कर में पड़ गया। वह सोच में पड़ गया। वह कुछ सोच नहीं पा रहा था। जैसे असमंजस में हो.....
‘देव! जैसा तुमने बताया है ...मन में वैसी भावनाऐं तभी उत्पन्न होती हैं ...जब एक पुरूष को किसी स्त्री से प्रेम हो जाता है....’ भगवान ने स्पष्ट किया। उचित समीक्षा की।
‘‘हाँ! हमें भी यही लगता है!‘‘ देव ने स्वीकार किया।
शिव ने सुना...
शिव मुस्कराऐं ये बात जानकर....
‘‘ ...पर शिव! हमने तो टीवी में हमेशा यही देखा है कि हीरो-हीरोइन हमेशा रोते ही रहते हैं! किसी से प्रेम होना कोई दिक्कत की बात तो नहीं?‘‘ देव ने प्रश्न किया।
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