उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
दोनों एक दूसरे को यूँ ही देखते रहे। ट्रेन पटरियों पर दौड़ती रही। युवती की नाजुक गोरी कलाई पर बॅधी घड़ी की सूइयाँ टिक! टिक! टिक! कर भागती रही।
अगर ट्रेन में अन्य लोग न होते तो कुछ होता, शायद बहुत कुछ होता, जो कभी न हुआ था वो होता। शायद दोनों ऐसे मिलते कि फिर कभी जुदा ना होते। मैंने महसूस किया...
रात गई। बात गई।
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पर ये क्या? दोनों का सम्पर्क ना टूटा। अभी भी बना रहा।
सूरज निकला। सूर्य की किरणें ट्रेन से टकराई। ट्रेन अपनी निर्धारित गति से उन दो पटरियों पर सरपट! सरपट! दौड़ती रही।
कुछ मिनटों बाद....
ट्रेन रूकी। इंजन के रूकने से एक धक्का सा उत्पन्न हुआ जो अन्य बोगियों से होता हुआ देव की इस बोगी तक पहुँचा। दोनों ही हिल पड़े।
खट! खट! खट! खट! सभी यात्री अपना-2 सामान उठा कर ट्रेन से उतरने लगे। देव ने बाहर देखा....
ये गोशाला रेलवे स्टेशन था, देव की मंजिल। उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा जिला जहाँ देव को उतरना था।
दोनों को लगा जैसे कुछ टूट गया। जैसे कुछ छूट गया। जैसे कुछ नुकसान हो गया। दोनों ही नहीं चाहते थे कि अब ये ट्रेन कभी रूके।
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