उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
फिर देव ने सड़क की बाई पटरी पकड़ी। एक-एक कर पाँच हलवाइयों की दुकान आयी और फिर आई लड़ाका गंगा की दुकान।
‘‘गंगासागर मिष्ठान भण्डार‘ देव ने बैनर पढ़ा नीले शब्द और सफेद बैकग्राउण्ड में। नाम से पहले दुर्गाजी की हाथ में तलवार और सिंह पे सवार वाली फोटो बनी थी। देव ने नोटिस किया...
‘‘हमारे यहाँ काजू बर्फी, कलाकन्द, मन्सूर, पेड़ा, खुरचन पेड़ा, पंजाबी बर्फी, छेना, सोनपापड़ी आदि मिठाईयाँ उचित मूल्य पर उपलब्ध है‘‘ फिर देव ने ठीक-ठीक पढ़ा बैनर के नीचे की ओर छोटे-छोटे अक्षरों में।
‘‘ये खुरचन वाला पेड़ा ...ये कौन सी मिठाई होती है?‘‘ देव ने बड़े आश्चर्य से पूछा मुझसे।
‘‘मुझे क्या पता!‘‘ मैंने अज्ञानता में कंधे उचकाये।
‘‘शादियों का भी आर्डर लिया जाता है‘‘ देव ने फिर पढ़ा... मिठाइयों के नाम के नीचे....
फिर बैनर पर ऊपर सबसे दायी ओर कोने मे.... ‘‘स्थापित 1946‘‘ देव ने शुद्ध भारतीय अंकों में पढ़ा।
‘‘अरे देव! गंगा के बाबू ने तो देश आजाद होने से पहले ही अपनी दुकान खोल दी थी‘‘ मैंने चौंककर देव से कहा। देव ने सुना...
फिर सबसे नीचे कोने में दायीं ओर... ‘‘प्रो0 गंगासागर हलवाई‘‘ देव ने पढ़ा अच्छी तरह।
‘‘अच्छा तो गंगासागर हलवाई ने अपनी लड़ाका का नाम अपने ही नाम पर गंगा रखा। अब समझ में आयी पूरी बात!‘‘ देव को पता चला।
देव ने आश्चर्य से सिर हिलाया और दुकान में प्रवेश किया।
0
|