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उपन्यास >> गंगा और देव

गंगा और देव

आशीष कुमार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :407
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9563
आईएसबीएन :9781613015872

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आज…. प्रेम किया है हमने….


‘‘गंगा का बड़ा सा घर होगा। घर के चारों ओर बड़ा सा बगीचा होगा जिसमें तरह-तरह के सुगन्धित फूल लगें होंगे। बगीचे में अनेक संगीतमय फव्वारे होंगे जो ऊपर-नीचे जाकर भाँति-2 का नृत्य दिखाते होंगे। कम से कम आठ-दस नौकर होंगे। घर की सफाई करने वाले अलग, खाना बनाने वाले अलग, कपड़े धोने वाले अलग। कई काम करने वाली नौकरानियाँ होंगी।

कुछ गंगा को नहलाती होंगी, कुछ उसके कपड़े धोती होंगी तो कुछ गंगा का श्रृँगार करती होंगी। कुछ नौकरानियाँ तो गंगा को खुद अपने हाथों से कपड़े पहनाती होंगी, उसे खाना खिलाती होंगी।

दरबान, घोड़ागाड़ी, मोटरकारों की तो कोई कमी न होगी‘‘ देव ने गंगा के लिए क्या-क्या सपने देखे थे, बड़ी सुन्दर कल्पनाऐं की थी। पर जैसे किसी ने देव की इन कल्पनाओं पर मटके भर-2 के पानी उड़ेल दिया हो। मैंने पाया....

‘‘लकड़ी की बड़ी लम्बी-लम्बी बेंचे, चाय पीते व समोसा खाते कई कस्टमर। लकड़ी और काँच का बना बड़ा सा काउण्टर, उस पर मिठाई तौलने के लिए तराजू, बांट, मिठाई पैक करने के लिए कागज व दफ्ती के बने अनेक डिब्बे का एक के ऊपर बना ढेर, पानी की बिसलरी वाली पैक्ड बोतलें आदि खाद्य सामग्री!‘‘ देव ने देखा पहली नजर में।

फिर.... बड़े-बड़े विशालकाय एल्यूमिनियम के भगौने, दैत्याकार लोहे की कढ़ाईयाँ ; जिसमें कोई बैठकर नहा भी सकता था, फिर जमीन का गन्दा-2 कच्चा फर्श जो हर दिन आने वाले अनगिनत लोगों के पैरों से दबदबकर फिर सीमेण्ट के पक्के फर्श का भ्रम देता था। फिर दो-तीन कारीगर काले-काले, मोटे-मोटे, गंजे-2, धुँऐंदार दीवारें, दीवारों के कोनों पर मकड़ी के जालों की भरमार, बड़ी सी चार मुँह वाली भट्टी जिसकी सतह तेल से भीगी थी। और फिर काउण्टर में रखी जलेबियों, लड्डूओं व अन्य मिठाईयों पर भिनभिनाती हुई कम से कम दस हजार मक्खियाँ!‘‘ देव ने देखा दूसरी नजर में।

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