उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
गायत्री ने संकेत किया कि अब लेटर दे दो। देव ने एक लम्बी साँस ली जैसा बकरा लेता है कसाई के हाथों में जाने से पहले। बिल्कुल वही वाली साँस। मैंने देखा....
.....तभी गायत्री ने देव को रोक लिया।
‘‘देव! ये दिमाग से पैदल है ...जानते ही हो!‘‘ गायत्री ने फुसफुसाते हुए सलाह मशविरा किया।
‘‘हाँ! हाँ!‘‘ देव ने गायत्री से सहमति जतायी।
‘‘कहीं ऐसा न हो कि ये शक्की और सनकी लड़की तुम्हारे इस लेटर को मैडम के हाथ में पकड़ा दे और कालेज वाले काँलेज से निकालने वाला लेटर तुम्हारे हाथ में पकड़ा दें‘‘ गायत्री ने शंका जताई।
‘‘हाय राम! ये तो मैंने सोचा ही नहीं‘‘ देव चौंक पड़ा।
‘‘मेरे दिमाग में तो ये बात ही नहीं आयी!‘‘ देव बोला आश्चर्य से।
‘‘ऊपर से ये प्यार-व्यार के खिलाफ है!‘‘ गायत्री बोली।
हाँ! हाँ!‘‘ देव ने सिर हिलाया।
‘‘लेकिन जब तक इसे तुमसे प्यार नहीं होगा तुम्हारी इससे शादी कैसे होगी?‘‘ गायत्री ने प्रश्न किया।
‘‘हाँ! हाँ!‘‘ देव ने फिर हाँ में सिर हिलाया
0
|