उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘तो अब?‘‘ देव ने बड़ी बेचैनी से पूछा।
‘‘गायत्री! यार तुम तो बीएससी पास हो! तुम्हें तो बड़ी मैथ्स आती है! क्या तुम अपनी नालेज का यहाँ व्यावहारिक जीवन में इस्तेमाल नहीं कर सकती?‘‘ देव ने पूछा।
गायत्री ने सुना। वो भी सोच में पड़ गयी। आखिर ‘गंगा‘ नाम के इस पाइथागोरस प्रमेय को किस प्रकार सिद्ध किया जाए? आखिर कैसे ग और ल की वैल्यू निकाली जाए? सारे इक्वेशन्स को कैसे बराबर किया जाये?
कुछ क्षणों बाद...
जैसे हनुमान को अपना बल याद आया। गायत्री ने ये ‘गंगा‘ नाम का पाइथागोरस प्रमेय सिद्ध का लिया। मैंने देखा....
‘‘देव! उससे प्यार करते हो?‘‘ गायत्री ने बड़ी सख्ती से पूछा जैसे कप्तान युद्ध में जाने से पहले अपने सैनिकों से पूछे कि क्या देश से प्यार करते हो? क्या देश के लिए जान दे सकते हो? क्या हवा में सैकड़ो मीटर ऊपर उड़ते हुए जहाज से दुश्मन के क्षेत्र में कूद सकते हो? बिल्कुल यही भाव उभरा। मैंने गौर किया...
‘‘हाँ! हाँ! बहुत ज्यादा!‘‘ देव ने सिर हिलाया।
‘‘कितना ज्यादा?‘‘ गायत्री ने फिर पूछा।
‘‘बहुत! बहुत ज्यादा!‘‘ देव ने दोनों हाथ फैलाकर बताया।
‘‘ ....तो जाकर सीधे-सीधे बोल दो! न कोई लेटर, न कोई वेटर, वो स्प्राइट वाला ऐड देखा है? सीधी बात नो बकवास!‘‘ गायत्री ने पूछा।
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