यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
इतिहास के निर्माण में लिखित सामग्री का भी उपयोग होता है। प्रत्येक सभ्य देश में कितने ही पूर्ण-अपूर्ण इतिहास-ग्रंथ पुराने काल से लिखे जाते रहें हैं। ऐसे ग्रंथों का महत्व कम नहीं है, किंतु इतिहास की सबसे ठोस प्राकृतिक सामग्री समकालीन अभिलेख और सिक्के होते हैं। वैसे ईंटें और मूर्तियाँ भी महत्व रखती हैं, किंतु वह काल के बारे में शताब्दी के भीतर का निश्चय नहीं कर सकतीं, जब कि अभिलेख, सिक्के अपनी बदलती लिपि के कारण समय का संकेत स्पष्ट कर देते हैं, चाहे उनमें सन्-संवत् न भी लिखा हो। बृहत्तर भारत के देशों में वही लिपि प्रचलित थी, जो उस समय हमारे देश में चलती थी। जिनको पुरा-लिपि से प्रेम है, उन्हें तो बृहत्तर भारत में जाते समय पुरा-लिपि का थोड़ा ज्ञान कर लेना चाहिए, और ब्राह्मी-लिपि से जितनी लिपियाँ निकली हैं, उनका चार्ट मौजूद हो तो और अच्छा है। यह ज्ञान सिर्फ अपने संतोष और जिज्ञासा-पूर्ति के लिए सहायक नहीं होगा, बल्कि इसके कारण वहाँ के लोगों के साथ हमारे घुमक्कड़ की बहुत आसानी से आत्मीयता हो जायगी।
वास्तु-निर्माण और उसकी ईंट पत्थर की सामग्री इतिहास के ज्ञान में सहायक होती है। बृहत्तर भारत में ईसा की प्रथम शताब्दी से 11वीं शताब्दी तक भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों से धर्मोपदेशक व्यापारी और राजवंशिक जाते रहे तथा उन्होंने वहाँ की वास्तुकला के विकास में भारी भाग लिया था। वास्तुकाल का साधारण परिचय तुलना करने के लिए अपेक्षित होगा। बृहत्तर भारत में जिन लोगों ने पुरातत्व या वास्तु कला के संबंध में अनुसंधान किया है, उनको हमारे देश का उतना ज्ञान नहीं रहा कि वह सब चीजों की गहराई में उतर सके, यह हमारे घुमक्कड़ को ध्यान में रखना चाहिए।
किसी भी बौद्ध देश में जाने वाले भारतीय घुमक्कड़ के लिए आवश्यक है कि वह जाने से पूर्व भारत, बृहत्तर भारत तथा बौद्ध साहित्य़ और इतिहास का साधारण परिचय कर ले और बौद्ध-धर्म की मोटी-मोटी बातों को समझ ले। कितने ही हमारे भाई उत्साह के साथ बौद्ध-देशों में जा बुद्ध के प्रति अपनी श्रद्धा - जो सचमुच बनावटी नहीं होती - दिखलाते हुए ईश्वर, परमात्मा, यज्ञ-हवन की बातें कर डालते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि इन विवादास्पद बातों के विरुद्ध भारत में बौद्धों की ओर से बहुत-से प्रौढ़ ग्रंथ लिखे गये, जिनमें से कितने ही बौद्ध देशों में अनुवादित हो मौजूद ही नहीं हैं, बल्कि अब भी वहाँ के विद्वान उन्हें पढ़ते हैं।
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