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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

पाषाण और धातु की बनी कीर्तियों से अमर होने की इच्छा सभी लोगों में बहुत पुरानी है। अब भी वह धारणा उसी तरह चली आती है। हमारे कितने ही अजंता, एलोरा, भुवनेश्वर और कोनार्क की अचल कीर्तियों को देख अपना नाम अमर करने की इच्छा से कितने ही सीमेंट, और ईंट के तड़क-भड़क वाले मंदिर बनवाते हैं। कितने अपनी पुस्तकों के छाप से समझते हैं कि वह अश्वघोष और कालिदास हैं। आज की पुस्तक जिस कागज पर छपती हैं, वह इतना भंगुर है कि पुस्तक सौ बरस भी नहीं चल सकती। छापाखानों ने पुस्तकों का छपना जितना आसान कर दिया है, उसके कारण प्रतिवर्ष हजारों नई पुस्तकें छप रही हैं, जिनकी संख्या शिक्षा-प्रचार के साथ शताब्दी लाखों हो जायगी। हजार वर्ष बाद इन पुस्तकों की रक्षा के लिए जितने घरों की आवश्यकता होगी, उनका बनाना संभव नहीं होगा। सच तो यह है कि हर एक पीढ़ी का अगली पीढ़ी पर अपनी अमरता को लादना उसी तरह की अबुद्धिपूर्वक भावना है, जैसी हमारे दस पीढ़ियों की पूर्वजों की यह आशा - कि हम उनके सारे नामों को याद रखेंगे - जो कि कुछ संभव भी है, यद्यपि बेकार है।

आज बीसवीं शताब्दी आधी बीत रही हैं, क्या आप आशा रखते हैं कि इन पचास वर्षों में जितने पुरुषों ने भिन्न भिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया है, उनमें से दस भी 6949 ईसवीं में अमर रहेंगे। गांधीजी, रवींद्र और रामानुजम् का नाम रह जायगा, बाकी में यदि दो-तीन और आ जाय तो बहुत समझिए, लेकिन उनका नाम हम आप बतला नहीं सकते। इतिहास का फैसला आँखों के सामने नहीं होता। वह उस समय होता है जबकि कोई सिफारिश नहीं पहुँचाई जा सकती। कभी-कभी तो फैसला बड़ा निष्ठुर होता है। संस्कृत के महान कवियों और विचारकों में जो हमारे सामने मौजूद हैं, क्या उनसे बेहतर या उनके जैसे और नहीं रहे, गुणाढ्य की बृहत्कथा क्यों लुप्त हो गई? क्या उसके संस्कृत अनुवादों को देखने से पता नहीं लगता, कि वह बड़ी उत्कृष्ट कृति रही होगी। बहुतों की महाकीर्तियाँ तो वर्ग-पक्षपात के कारण मिट गईं। क्या हमारे प्राचीन कवियों और लेखकों में सभी सामंतों के गुण गानेवाले ही रहे होंगे? हजार में दस-पाँच ने अवश्य उनके दोषों को भी दिखलाया होगा और साधारण जनता के हित को सामने रखा होगा, लेकिन सामंती संरक्षकों ने ऐसी कृतियों को अपने पुस्तकालयों में रहने नहीं दिया, उनके अनुचर विद्वानों ने भी प्रश्रय नहीं दिया। आज हम युगपरिवर्तन के संधिकाल में हैं। पिछली शताब्दी और वर्तमान के चौदह सालों में रूस में जिन्हें महाप्रतापी समझा जाता था, उनमें बहुत से हमारे सामने मर गये। चीन का इतिहास भी उसी तरह फिर से लिखा जा रहा है, जिसमें अमर चांगकैशक की क्या गत होगी, यह आप स्वयं समझ सकते हैं। भारत में भी कितने ही अमर होने के इच्छुक बहुत जल्द भुला दिये जायँगे। कितनों के मुंह के ऊपर इतिहास इतना काला पुचारा फेरेगा, जिससे उनका मर जाना ही अच्छा होता।

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