उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘दीदी के बच्चा होने वाला है।’’
‘‘सत्य?’’
‘‘हाँ। तुम एक रात उसके कमरे में रहे थे और उसको अपनी स्मृति दे आये हो।’’
‘‘तब तो ठीक हुआ है। माता-पिता को सन्तान मिलेगी। उनका वंश चल सकेगा। यह एक चिन्ता थी। मैं समझता हूँ कि मैं पितृ-ऋण से मुक्त हो गया हूँ। अब मेरे लिये हिन्दुस्तान लौटने में कोई कारण नहीं। मेरे विषय में आप वहाँ कुछ नहीं लिखियेगा।’’
‘‘मगर मैं तुम्हारा अफसर भी तो हूँ। तुम सेना से भागे हुए व्यक्ति हो।’’
‘‘वे तो मुझे मरणोपरान्त पुरस्कार भी दे चुके हैं।’’
‘‘देखो अमृत! मुझे अपना पता बता दो और मुझे विचार करने दो कि मुझे क्या करना चाहिये।
‘‘मगर एक बार मुझे समझ में नहीं आयी कि तुम तुरन्त किसी-न-किसी से विवाह करने में सफल हो जाते हो। कितनों से विवाह कर चुके हो?’’
अमृत हँस पड़ा। हँसकर बोला, ‘‘यह पाँचवी है।’’
‘‘ओह! बहुत भाग्यशाली हो।’’
‘‘मैं अपनी ओर से यत्न नहीं करता। यह तो लड़कियाँ मेरे पीछे भागती हुई प्रतीत होती थीं। परन्तु एक बात से मैं परेशान रहता हूँ। वह यह कि महिमा को छोड़कर जो भी मेरे पल्ले पड़ी है, वह किसी-न-किसी कारण मेरे साथ नहीं रह सकी। इस सूसन पर भी मुझे सन्देह रहता है।
‘‘जब हम लियौन में पहुँचे तो इसने पहले रात मेरे साथ सोने का प्रस्ताव कर दिया। मैं इस प्रस्ताव की आशा ही करता था। तब तक वह मुझ पर कई सहस्त्र फ्रेंक व्यय कर चुकी थी। मैंने इसे कहा, ‘मेरी एक पत्नी दिल्ली में है।’
‘‘इस पर इसने कहा, ‘तब क्या हुआ? अब तुम वहाँ नहीं जाओगे। उसके लिये तुम इस दुनिया में नहीं हो।’
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