उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘इसी विचार से कि यह सम्बन्ध भी पक्का नहीं होगा, मैं स्वतन्त्र नौकरी पाने का यत्न कर रहा हूँ। ‘फ्रेंच एयर लाइन्स’ में नौकरी मिल जाने की आशा है।’’
‘‘यह सूसन अब यहाँ किस काम से आयी है?’’
‘‘इसके पिता ने इसे बुला भेजा है। वह चाहता है कि इसका विवाह कर दे। सूसन मुझे अपने साथ लायी है। भेंट कल होने वाली हैं।’’
‘‘अच्छा। मैं कल शनिवार और परसों रविवार लन्दन में ही हूँ। लन्दन से रात आठ बजे के हवाई जहाज से नौटिगम जाने का कार्यकम है। सोमवार प्रातःकाल ही मुझे प्रशिक्षण में उपस्थित होना है।
‘‘इस कारण मैं चाहता हूँ कि कल सायं चाय के समय आओ तो बातचीत हो जायेगी। मैं स्वयं भी अनिश्चित मन हूँ कि तुम्हारी मुखबरी करूँ अथवा न?’’
‘‘मैंने इस विषय में बहुत विचार किया है। अब पाँच स्त्रियों की संगत पाने के उपरान्त मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि स्त्रियों की संगत में अन्तर नहीं। अन्तर है पुरुष-स्त्री के दूसरे सम्बन्धों का। इस समय मेरी आयु चौंतीस वर्ष की हो गयी है और मैं अब जीवन में स्थिर होना चाहता हूँ।
‘‘परन्तु जिस बात को भारतीय समाज निन्दनीय मानता है, उसे यहाँ फ्रांस में जीवन की एक सामान्य बात मानी जाती है। इस कारण महिमा और सूसन में निर्वाचन इसी दृष्टिकोण से कर रहा हूँ।
‘‘मैं आपकों बताता हूँ कि उस दिन क्या हुआ जिस दिन मैं महिमा को पुनः प्राप्त हुआ था। रात उससे तिरस्कृत मैं अपनी बैरक में लौटा तो उस तिरस्कार का बदला लेने की भावना मन में उत्कृष्ट हो उठी। अतः मैंने योजना बनायी और आपसे उस दिन की छुट्टी ले मैं यह पता करने कि महिमा अपनी नौकरी पर गयी है अथवा नहीं, उसके स्कूल पर जा पहुँचा। आधे दिन के अवकाश के समय वहाँ गया था। मैंने अपनी सूचना भीतर भेजी तो वह बाहर मिलने आयी। मैंने उसे कहा, ‘मैं तुमसे सबसे पृथक में बात करना चाहता हूँ।’’
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