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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592
आईएसबीएन :9781613011072

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘एक वर माँगने के लिये मैं इस आश्रम पर आया था, परन्तु इस आश्रम को सूना देख अति दुःखी हूँ।’’

‘‘माँगो राजकुमार! मेरे बस में हुआ तो अवश्य दूँगा।’’

‘‘भगवन्! माताजी क्षमा के योग्य हैं। वह घोर प्रायश्चित्त कर चुकी हैं।’’

मुनि एक क्षण तक राम का मुख देखता रह गया। राम ने ऋषि-पत्नी की ओर संकेत कर कह दिया, ‘‘इनकी दयनीय अवस्था देखिये। भगवन्! अब दया करिये।’’

गौतम ने राम की ओर देखकर कह दिया, ‘‘एवमस्तु! परमात्मा इसका कल्याण करे।’’

राम ने आगे बढ़ ऋषि के चरण-स्पर्श किये और ऋषि-पत्नी का हाथ पकड़कर उसे आसन से उठाते हुए कहा, ‘‘माताजी! आइये, और परमात्मा का धन्यवाद करिये। महर्षिजी ने शाप वापस ले लिया है।’’

अहल्ला उठी और ऋषि के चरण-स्पर्श करने के लिये झुकी तो ऋषि ने पत्नी को उठा उसके सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘अब मैं इस आश्रम में आ गया हूँ और यहीं रहूँगा।’’

ऋषि-पत्नी का राम द्वारा उद्धार का समाचार विश्वामित्र के मिथिलापुरी पहुँचने से पहले पहुँच गया था। जब ये लोग मिथिलापुरी की राजधानी जनकपुरी में पहुँचे तो महाराज जनक महर्षि विश्वामित्र और तेजस्वी राम के दर्शन के लिये इनके निवास-स्थान पर आये। विश्वामित्र जनकपुरी के एक उद्यान में ठहरे हुए थे।

राजा जनक ने विश्वामित्र के चरण-स्पर्श किये और कहा, ‘‘भगवन्! इन राजकुमारों का महर्षि गौतम और उनकी पत्नी से सुलह करवाने का समाचार यहाँ पहुँचा है। हम इससे बहुत प्रसन्न हैं।’’

विश्वामित्र ने महाराज जनक को आशीर्वाद दिया और बताया, ‘‘हम भ्रमणार्थ आये हैं।’’

इस पर जनक ने बताया, ‘‘भगवन् हमारी कन्या सीता अब विवाह योग्य हुई है और हम उसके लिये वर ढूँढ़ने का यत्न कर रहे हैं।’’

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