धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
पुनि
पुनि विनय करहिं सब सुरगन।
विनवत विलपत उमगत तन मन।।
तेहिं अवसर गिरिराज किसोरी।
गंग नहान चलीं मां गौरी।।
बंकिम भृकुटि मनोहर नयना।
जगदम्बा बोलीं मृदु बयना।।
केहि सुमिरत सुरगन इत आई।
पुनि तन प्रगटि सिवा समुझाई।।
सुंभ निसुंभ करत अपमाना।
आए हारि देवि भय माना।।
चरन सरन माता तव आए।
प्रनवत तुमहिं प्रथम वर पाए।।
सिवा जन्म देवी तन कोषा।
नाम कौसिकी सबु जग पोषा।।
निज तन तें कौसिकिहिं निकाली।
गौरी मातु तबहिं तें काली।।
एहिं ते सोइ काली कहलावैं।
वास हिमालय पर नित पावैं।।
विनवत विलपत उमगत तन मन।।
तेहिं अवसर गिरिराज किसोरी।
गंग नहान चलीं मां गौरी।।
बंकिम भृकुटि मनोहर नयना।
जगदम्बा बोलीं मृदु बयना।।
केहि सुमिरत सुरगन इत आई।
पुनि तन प्रगटि सिवा समुझाई।।
सुंभ निसुंभ करत अपमाना।
आए हारि देवि भय माना।।
चरन सरन माता तव आए।
प्रनवत तुमहिं प्रथम वर पाए।।
सिवा जन्म देवी तन कोषा।
नाम कौसिकी सबु जग पोषा।।
निज तन तें कौसिकिहिं निकाली।
गौरी मातु तबहिं तें काली।।
एहिं ते सोइ काली कहलावैं।
वास हिमालय पर नित पावैं।।
जगदम्बा मां कौसिकी परम मनोहर रूप।
चण्ड मुण्ड दोउ सुंभ गन, देखेऊ रूप अनूप।।५।।
देखि सुंभ
ढिग कियेउ पयाना।
लागे करन मातु गुनगाना।।
परम पुनीत मनोहर नारी।
देखा दिव्य रूप तनुधारी।।
गौर बरन अनुपम अति देहा।
तुहिनाचल कीन्हेसि निज गेहा।।
तिभुवन तीनि काल जग माहीं।
देखेउ सुनेउ रूप अस नाहीं।।
निसिचरनाह खोज करवाई।
आनन्दहु निज भवन बुलाई।।
तेहिं सम नारि न कौनउ देसा।
अंग-अंग सुमनोहर वेसा।।
सुर नर असुर नाग मुनि सर्वा।
किन्नर यक्ष पितर गन्धर्वा।।
चितवत चकित चित्त असुरेसा।
प्रभापुंज पसरत सब देसा।।
अबहु हिमाचल सिखर विराजति।
देखु देवि छबि लोकनि लाजति।।
गय हय मनि रतननि बहु आनी।
तव आधीन सकल सुखमानी।।
सुरपति जीति एरावत लायो।
उच्चस्रवा परिजात मंगायो।।
लागे करन मातु गुनगाना।।
परम पुनीत मनोहर नारी।
देखा दिव्य रूप तनुधारी।।
गौर बरन अनुपम अति देहा।
तुहिनाचल कीन्हेसि निज गेहा।।
तिभुवन तीनि काल जग माहीं।
देखेउ सुनेउ रूप अस नाहीं।।
निसिचरनाह खोज करवाई।
आनन्दहु निज भवन बुलाई।।
तेहिं सम नारि न कौनउ देसा।
अंग-अंग सुमनोहर वेसा।।
सुर नर असुर नाग मुनि सर्वा।
किन्नर यक्ष पितर गन्धर्वा।।
चितवत चकित चित्त असुरेसा।
प्रभापुंज पसरत सब देसा।।
अबहु हिमाचल सिखर विराजति।
देखु देवि छबि लोकनि लाजति।।
गय हय मनि रतननि बहु आनी।
तव आधीन सकल सुखमानी।।
सुरपति जीति एरावत लायो।
उच्चस्रवा परिजात मंगायो।।
विधि ते लीनेउ नाथ तुम, राजहंस जुत यान।
रत्न रूप अति दिव्य रथ, सो तव अजिर सुहान।।६क।।
महापद्म निधि धनद तें, लियो नाथ तुम छीन।
किंजल्की माला जलधि, कमल न जासु मलीन।।६ख।।
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