धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
जातें
कनक वृष्टि गृह होई।
वरुन छत्र लीन्यो तुम सोई।।
प्रजापतीं तें रथ तुम पायो।
उतक्रांतिदा मृत्यु ते लायो।।
तव गृह लसत बरुन को पासा।
सकल रतन जे जलधि विलासा।।
पावक सुद्ध बसन कर दाना।
सकल रतन तव भवन सुहाना।।
नारि रतन राजति कल्यानी।
लावहु नाथ भवन सुख मानी।।
चण्ड मुण्ड जब अस समझावा।
सुंभासुर सुग्रीव बुलावा।।
सुनु सुग्रीव जाहु बनि धावन।
कहहु मोर संदेस सुहावन।।
करि प्रनाम पुनि धावन धावा।
हिम प्रदेस रमनीय सुहावा।।
देखा देवि तहां आसीना।
बोला मधुर वचन छबि लीना।।
देबि सुंभ असुरन को ईसा।
तीन लोक नावत तेहिं सीसा।।
सुर नर असुर नाग मुनि जेते।
प्रति पालत आयसु जग ते-ते।।
हारे सकल देव रन माहीं।
सोइ संदेस कहेउ तोहि पाहीं।।
लोकप सदा रहहिं बस मोरे।
सकल देव विनवहिं कर जोरे।।
वरुन छत्र लीन्यो तुम सोई।।
प्रजापतीं तें रथ तुम पायो।
उतक्रांतिदा मृत्यु ते लायो।।
तव गृह लसत बरुन को पासा।
सकल रतन जे जलधि विलासा।।
पावक सुद्ध बसन कर दाना।
सकल रतन तव भवन सुहाना।।
नारि रतन राजति कल्यानी।
लावहु नाथ भवन सुख मानी।।
चण्ड मुण्ड जब अस समझावा।
सुंभासुर सुग्रीव बुलावा।।
सुनु सुग्रीव जाहु बनि धावन।
कहहु मोर संदेस सुहावन।।
करि प्रनाम पुनि धावन धावा।
हिम प्रदेस रमनीय सुहावा।।
देखा देवि तहां आसीना।
बोला मधुर वचन छबि लीना।।
देबि सुंभ असुरन को ईसा।
तीन लोक नावत तेहिं सीसा।।
सुर नर असुर नाग मुनि जेते।
प्रति पालत आयसु जग ते-ते।।
हारे सकल देव रन माहीं।
सोइ संदेस कहेउ तोहि पाहीं।।
लोकप सदा रहहिं बस मोरे।
सकल देव विनवहिं कर जोरे।।
जज्ञ भाग भोगहुं सकल, सब जग मम आधीन।
जगत रतन जेते रहे, निज गृह सोभा कीन।।७।।
लीन्हा
ऐरावत गजराजा।
वाहन परम चढ़त सुरराजा।।
उच्चस्रवा हय पुनि बस कीन्हा।
देवन लाय समर्पित कीन्हा।।
सुर मुनि नाग असुर गन्धर्वा।
असुरराज बस वैभव सर्वा।।
तोहि सम नारि रतन नहिं दीसा।
चलहु संग आयसु धरि सीसा।।
यह संदेस सुनहु मृगनयनी
वचन मानि सँग चलु पिकवयनी।।
घरनी बनहु सुंभ गृह जाई।
वा निसुंभ कहं तुम अपनाई।।
नारि रतन अनुसर मम बानी।
सुंभ सकल सुख सम्पत्ति दानी।।
सुंदरि सुंभ वचन नहिं टारहु।
बेगि चलहु आयसु प्रतिपालहु।।
यह संदेस मन लेहु विचारी।
करहु प्रीति निज मन अनुसारी।।
वाहन परम चढ़त सुरराजा।।
उच्चस्रवा हय पुनि बस कीन्हा।
देवन लाय समर्पित कीन्हा।।
सुर मुनि नाग असुर गन्धर्वा।
असुरराज बस वैभव सर्वा।।
तोहि सम नारि रतन नहिं दीसा।
चलहु संग आयसु धरि सीसा।।
यह संदेस सुनहु मृगनयनी
वचन मानि सँग चलु पिकवयनी।।
घरनी बनहु सुंभ गृह जाई।
वा निसुंभ कहं तुम अपनाई।।
नारि रतन अनुसर मम बानी।
सुंभ सकल सुख सम्पत्ति दानी।।
सुंदरि सुंभ वचन नहिं टारहु।
बेगि चलहु आयसु प्रतिपालहु।।
यह संदेस मन लेहु विचारी।
करहु प्रीति निज मन अनुसारी।।
बोले मुनि महिपाल सुनि वचन मातु मुसुकात।
पुनि धावन ते मृदु वचन लगीं कहन जगमात।।८।।
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