धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
मुख
विसाल देखत तन कांपा।
लपलप जीभ करत जिमि सांपा।।
अरुन नयन मनु रुधिर पनारा।
दस दिसि, कंप सुनत हुंकारा।।
जय जय जय जगदम्बा काली।
भगतनि केर करहु रखवाली।।
मां कालिका मत्त रनरंगा।
कंपत असुर होत मदभंगा।।
अति विसाल निज मुख फैलाहीं।
गहि गहि सेल निसाचर खाहीं।।
साज सहित गज अरु असवारी।
अंकुस सहित महावत झारी।।
हय गय रथ सारथि असवारा।
खात चबात लाग नहिं बारा।।
पकरहिं धरहिं बदन महं डारहिं।
खाहिं चबाहिं मातु हुंकारहिं।।
काहु घसीटतिं धरि धरि झोंटा।
मारति काहुहिं लातनि चोटा।।
कतहुं पकरि करि कंठ दबावहिं।
काहु वक्ष तै मारि गिरावहिं।।
कर लपेटि कछु दंत चपेटा।
परम कुद्ध कछु धरनि घसीटा।।
असि मूसल सर असुरनि मारा।
सब मुख चाबि असुर संहारा।।
कछु खट्वांग लै करत प्रहारा।
देवि असुर गन भक्षि निवारा।।
लपलप जीभ करत जिमि सांपा।।
अरुन नयन मनु रुधिर पनारा।
दस दिसि, कंप सुनत हुंकारा।।
जय जय जय जगदम्बा काली।
भगतनि केर करहु रखवाली।।
मां कालिका मत्त रनरंगा।
कंपत असुर होत मदभंगा।।
अति विसाल निज मुख फैलाहीं।
गहि गहि सेल निसाचर खाहीं।।
साज सहित गज अरु असवारी।
अंकुस सहित महावत झारी।।
हय गय रथ सारथि असवारा।
खात चबात लाग नहिं बारा।।
पकरहिं धरहिं बदन महं डारहिं।
खाहिं चबाहिं मातु हुंकारहिं।।
काहु घसीटतिं धरि धरि झोंटा।
मारति काहुहिं लातनि चोटा।।
कतहुं पकरि करि कंठ दबावहिं।
काहु वक्ष तै मारि गिरावहिं।।
कर लपेटि कछु दंत चपेटा।
परम कुद्ध कछु धरनि घसीटा।।
असि मूसल सर असुरनि मारा।
सब मुख चाबि असुर संहारा।।
कछु खट्वांग लै करत प्रहारा।
देवि असुर गन भक्षि निवारा।।
छन महं सकल तमीचर सेन हतीं बरिबंड।
देखा सेन विनास जब धावा निसिचर चण्ड।।३क।।
सर बरसावत अति प्रबल करत चक्र तें वार।
मुण्ड छँपेउ देवी वदन नाचत चक्र हजार।।३ख।।
कालिहिं
बदन चक्र लगु ऐसे।
मेघ माल मधि रवि दुति जैसे।
तब गरजीं कालिका विसाला।
अट्टहास कीन्हेउ विकराला।।
कृष्ण बदन दसननि अस राजत।
मनहुं मेघ बन दामिनि छाजत।।
निज कर में किरपान संभारी।
जगत मातु पुनि 'हुं' उच्चारी।।
कच गहि असुर चंड सिर काटा।
एहिं विधि महाअसुर उत्पाटा।।
देखेउ मुण्ड चण्ड कर मरना।
धावा कुपित चहत खल लरना।।
आवत देखि हततिं मां काली।
मरे निसाचर दोउ सुरसाली।।
हाहाकार असुर दल कीना।
भागे सकल भए बलहीना।।
चण्ड-मुण्ड़ मुण्डहिं कर लयऊ।
गयीं कालि चण्डी जहं ठयऊ।।
अट्टहास करि बारहिंबारा।
मां कालिका बचन उच्चारा।।
महाजुद्ध यह यज्ञ समाना।
चण्ड मुण्ड आहुति मैं जाना।।
सुंभ निसुंभ निधन तव हाथा।
सुनहु महीपति आगिल गाथा।।
देखत चण्ड मुण्ड कर सीसा।
चण्डी वचन सुनहु अवनीसा।।
चण्ड मुण्ड बध किएउ प्रचण्डा।
जग महं नाम प्रगट चामुण्डा।।
मेघ माल मधि रवि दुति जैसे।
तब गरजीं कालिका विसाला।
अट्टहास कीन्हेउ विकराला।।
कृष्ण बदन दसननि अस राजत।
मनहुं मेघ बन दामिनि छाजत।।
निज कर में किरपान संभारी।
जगत मातु पुनि 'हुं' उच्चारी।।
कच गहि असुर चंड सिर काटा।
एहिं विधि महाअसुर उत्पाटा।।
देखेउ मुण्ड चण्ड कर मरना।
धावा कुपित चहत खल लरना।।
आवत देखि हततिं मां काली।
मरे निसाचर दोउ सुरसाली।।
हाहाकार असुर दल कीना।
भागे सकल भए बलहीना।।
चण्ड-मुण्ड़ मुण्डहिं कर लयऊ।
गयीं कालि चण्डी जहं ठयऊ।।
अट्टहास करि बारहिंबारा।
मां कालिका बचन उच्चारा।।
महाजुद्ध यह यज्ञ समाना।
चण्ड मुण्ड आहुति मैं जाना।।
सुंभ निसुंभ निधन तव हाथा।
सुनहु महीपति आगिल गाथा।।
देखत चण्ड मुण्ड कर सीसा।
चण्डी वचन सुनहु अवनीसा।।
चण्ड मुण्ड बध किएउ प्रचण्डा।
जग महं नाम प्रगट चामुण्डा।।
जयति जयति मां चण्डिका, जय चामुण्डा मात।
प्रीति सहित जो नित पढ़े, सकल कष्ट कटि जात।।४।।
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