उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमा ने कहा-'समझती-बूझती तो मैं भी हूँ।'
'तुम न समझोगी तो कौन समझेगा-और फिर इसमें ऐसी गूढ़ बात ही क्या है? सच माने में तुम्हें तो लड़का होना चाहिए था! बड़े-बड़े अच्छे जमींदार भी समझ-बूझ में तुम्हारा पार नहीं पा सकते!'-वेणी बाबू बोले और उठते हुए उन्होंने फिर कहा-'अच्छा तो मैं अब चलूँ, कल फिर समय मिलने पर आऊँगा।'
रमा अपनी इस तारीफ से प्रसन्न हो उठी थी। वेणी बाबू को जाते देख, वह उन्हें तनिक रोकना चाहती थी कि एकाएक आँगन में एक अनजाने, भरे हुए गले की ध्वनि-'रानी कहाँ है?' सुन कर अचकचा उठी।
रमा के छुटपन में, रमेश की माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी, लेकिन समय बीत जाने पर उसे यह बात याद न रही थी। वेणी बाबू का चेहरा भयातुर विस्मय से काला पड़ गया।
रमेश नंगे पैर, सूखे सिर पर दुपट्टा बाँधे आँगन में उसके सामने आ खड़ा हुआ और वेणी बाबू को देखते ही बोला-'वेणी भैया, आपको तो मैं सारे गाँव में ढूँढ़ आया और आप यहाँ हैं? अच्छा चलिए, आपके बिना तो सारा काम रुका पड़ा है!'
रमा भी भागने का कोई रास्ता न पा कर सहमी-सी चुपचाप एक ओर खड़ी रही। रमेश उसको देख, विस्मय-भरे शब्दों में बोला-'तुम तो अब इतनी बड़ी हो गई! अच्छी तरह तो रही न!' रमा चुप थी। वह अचकचाई-सी, भौंचक, सहमी खड़ी रही। रमेश ने फिर थोड़ा मुस्कराते हुए पूछा-'मुझे पहचानती हो न? वही तुम्हारा पुराना रमेश भैया हूँ।'
रमा अब भी न बोल सकी। फिर उसने वैसे ही आँखें नीचे किए हुए पूछा-'आप तो अच्छे हैं?'
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