उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश ने कहा-'अच्छी तरह तो हूँ ही! पर मैं तुम्हारे लिए, 'तुम' से 'आप' कब हो गया?'
फिर रमेश ने वेणी बाबू को संबोधित करते हुए कहा-'भैया, रमा की यह बात मेरी स्मृति में आज भी वैसी ही ताजी है। जब मेरी माँ का स्वर्गवास हुआ था और मेरी वेदना आँसू बन कर बह रही थी, तब रमा ने मेरे व्यथित हृदय को शांत कर, आँसू पोंछते हुए कहा था-भैया, रोओ नहीं! तुम्हारी माँ मर गई तो क्या हुआ? क्या मेरी माँ तुम्हारी माँ नहीं? रमा, तुम्हें तो अब यह बात याद न होगी!' फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने पूछा-'मेरी माँ की तो तुम्हें याद है न?'
रमा वैसी ही मूर्तिवत खड़ी रही-सिर नीचा किए हुए, और वह रमेश के किसी प्रश्न का उत्तर न दे सकी। रमेश ने रमा को सुनाते हुए ही कहा-'मैं तो यहाँ नितांत शरणार्थी हो कर आया हूँ। मेरा यहाँ तुम लोगों के सिवा कौन है? तुम लोगों के बिना गए तो कोई काम नहीं सिमट सकता।'
मौसी रमेश के पीछे खड़ी-खड़ी सब बातें सुन रही थी। जब उन्होंने देखा कि रमेश की बात का कोई भी उत्तर नहीं दे रहा है, तो स्वयं ही सामने आ कर बोलीं-'तुम तारिणी के ही लड़के हो न?'
रमेश मौसी को पहचानता न था। उसने उन्हें कभी देखा भी न था। जब वे रमा की माँ की बीमारी के समय इस घर में आई थी, तब वह यहाँ से जा चुका था। मौसी तब से यहीं रही। रमेश उनके इस प्रश्न से अप्रतिभ हो उठा।
मौसी ने फिर कहा-'तुम्हें किसी भले आदमी के घर में, बिना कुछ कहे-सुने, बिना पूछे-ताछे घुस आने में तनिक भी लाज न आई और ऊपर से यों बढ़-बढ़ कर बातें करते हो?'
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