आज तो वही देश शक्ति-संपन्न होगा, जिसके पास ज्यादा संपत्ति है, ज्यादा
व्यक्ति नहीं।
वह जमाना गया, जब आदमी ताकतवर था अब मशीन ताकतवर है। और मशीन उसी देश के पास
अच्छी-से अच्छी हो सकेगी, जिस देश के पास जितनी संपनता होगी और संपन्नता उसी
देश के पास ज्यादा होगी, जिसके पास प्राकृतिक साधन ज्यादा और जनसंख्या कम
होगी।
तो, पहली बात यह है कि आज जनसंख्या शक्ति नहीं है और इसीलिए भ्रांति में पड़ने
का कोई कारण नहीं है। चीन के पास चाहे जितनी जनसंख्या हो तो भी शक्तिशाली
अमेरिका होगा। चीन के पास जितनी भी जनसँख्या हो तो भी छोटा-सा मुल्क इंग्लैंड
शक्तिशाली है, और जापान जैसा मुल्क भी शक्तिशाली है। शक्ति का पूरा का पूरा
आधार बदल गया है।
जब आदमी ही एक मात्र आधार था, तब तो ये बातें ठीक थीं कि जनसंख्या बड़ा मूल्य
रखती थी। लेकिन अब आदमी से भी बड़ी शक्ति हमने पैदा कर ली है, जो मशीन की है।
मशीन ताकत है। और उतना ही संपन्न हो सकता है, जितना ज्यादा जनसंख्या उसकी कम
हो, ताकि उसके पास संपत्ति बच सके, लोगों को खिलाने, कपड़ा पहिनाने, इलाज
कराने के बाद; ताकि उस शक्ति को वैज्ञानिक विकास करने में लगा सकें।
दूसरी बात यह समझने जैसी है कि संख्या कम होने से उतना बड़ा दुर्भाग्य नहीं
टूटेगा, जितना बड़ा दुर्भाग्य संख्या के बढ़ जाने से बिना किसी हमले के टूट
जाएगा। यानी हमले का तो कोई उपाय भी किया जा सकता है कि कोई बड़ा मुल्क हम पर
हमला करे तो हम दूसरों से सहायता ले ले, लेकिन हमारे ही बच्चे हमलावर सिद्ध
हो जाएं संख्या के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण तो हम किसी की सहायता न ले
सकेंगे। उस वक्त हम बिल्कुल असहाय हो जाएंगे।
इस वक्त युद्ध इतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा जनसंख्या विस्फोट का
है। खतरा बाहर नही है कि हमें कोई मार डाले, वरन् जो हमारी उत्पादन क्षमता है
बच्चों की, वही हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है-कि संख्या इतनी हो जाए कि हम
सिर्फ मर जाए इस कारण से कि न पानी हो, न भोजन हो, न रहने को जगह।
तीसरी बात यह कि जो हम सोचते हैं कि हिंदू अपनी संख्या कम कर ले तो मुसलमान
से कम न हो जाएं तो इस डर से हिंदू भी अपनी संख्या कम न करें। मुसलमान भी इस
डर से अपनी संख्या कम न करें कि कहीं हिंदू ज्यादा न हो जाएँ। ईसाई भी यही डर
रखें। जैन भी यही डर रखें। सिक्ख भी यही डर रखे। तो इन सबके डर एक से हैं। तब
परिणाम यह होगा कि मुल्क ही मर जाएगा तो, यह डर किसी को तो तोड़ना शुरू करना
पड़ेगा। और जो समाज इस डर को तोड़ेगा, वह संपन्न हो जाएगा। मुसलमानों से उनके
बच्चे ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा शिक्षित होंगे, ज्यादा अच्छे मकानों में रहेंगे।
वे दूसरे समाजों को जिनकी संख्या कीड़े-मकोड़ों की तरह बढ़ेगी, उनको पीछे छोड़कर
आगे निकल जाएंगे। और, इसका परिणाम यह भी होगा कि दूसरे समाजों में भी स्पर्धा
पैदा होगी इस खयाल से कि वे गलती कर रहे हैं।
आज दुनिया में यह बड़ा सवाल नहीं है कि हिंदू कम हो गए तो कोई हर्ज हो रहा
है, कि मुसलमान ज्यादा हो गए तो उनको कोई फायदा हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि
अगर इन सारे लोगों के दिमाग में यही खयाल भरा रहे तो यह पूरा मुल्क मर जाएगा।
अगर यही विकल्प है कि हिंदू कम हो जाएंगे और इससे हिंदुओं की संख्या को
नुकसान पहुंचेगा। मुसलमान ज्यादा हो जाएंगे, ईसाई ज्यादा हो जाएंगे। तो भी
मैं कहूंगा कि हिदू अपने को कम कर लें और भारत को बचाने का श्रेय ले लें,
चाहे खुद मिट जाएं। हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है। तो भी मैं कहूंगा कि
मेरे लिए यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, हिंदू-मुसलमान का, जितना बड़ा मेरे लिए एक
दूसरा सवाल है।
जब तक हम परिवार नियोजन को स्वेच्छा पर छोड़े हुए हैं, तब तक खतरा एक दूसरा है
कि जो जितना शिक्षित और उन्नत है, जो जितना संपन्न है, जिसकी बुद्धि विकसित
है, वह तो राजी हो जाएगा स्वभावतः। वह तो आज परिवार नियोजन के लिए राजी हो
जाएगा, सिर्फ बुद्धुओं को छोड़कर। बुद्धिमान तो राजी होंगे ही; क्योंकि
परिवार नियोजन से उसके बच्चे ज्यादा सुखी होंगे, ज्यादा संपन्न होंगे, ज्यादा
शिक्षित होंगे।
लेकिन खतरा यह है कि जो बुद्धिहीन वर्ग है-उसको न कोई शिक्षा है, न कोई ज्ञान
है, न कोई सवाल है-वे समझ ही न पाएं और बच्चे पैदा करते चले जाएं। तो जो
नुकसान हो सकता है लम्बे अर्थों में, वह यह हो सकता है कि अशिक्षित, अविकसित,
पिछड़े हुए लोग ज्यादा बच्चे पैदा करें और शिक्षित व संपन्न लोग कम बच्चे पैदा
करें तो मुल्क की प्रतिभा को ज्यादा नुकसान पहुंचे।
यह हो सकता है।
इसलिए मेरी यह मान्यता है कि परिवार नियोजन की बात धीरे-धीरे अनिवार्य हो
जानी चाहिए।
कहीं ऐसा न हो कि बुद्धिमान तो स्वीकार कर लें और गैर-बुद्धिमान न करें, तो
वह अनिवार्य होना चाहिए। इसलिए मैं अनिवार्य परिवार नियोजन के पक्ष में हूं।
परिवार नियोजन किसी का स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता है।
यह तो ऐसा ही है कि जैसे हम हत्या को स्वेच्छा पर छोड़ दें कि जिसको करना हो
करें, जिनको न करना हो न करें। डाके को स्वेच्छा पर छोड़ दें कि जिसको डाका
डालना हो डाले, न डालना हो न डाले। सरकार समझाने की कोशिश करेगी और देखती
रहेगी। डाका भी आज उतना खतरनाक नहीं है, हत्या भी आज उतनी खतरनाक नहीं है,
जितना जनसंख्या का बढ़ना।
इस जीवंत सवाल को इस तरह स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। और जब हम इसे
स्वेच्छा पर नहीं छोड़ते तो यह हिंदू मुसलमान ईसाई का सवाल नहीं रह जाता।
क्योंकि, सिक्स को उसका गुरु समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, मुसलमान ज्यादा
हो जाएंगे। मुसलमान को मौलवी समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, हिंदू ज्यादा
हो जाएंगे। वही ईसाई पादरी भी सोच रहा है, वही हिंदू पंडित भी सोच रहा है। ये
सब जो सोच रहे है इनकी सोचने की वजह भी अनिवार्य परिवार नियोजन से मिट जाएगी।
यदि हम परिवार नियोजन कर देते हैं तो कोई हिंदू मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं
रह जाता है।
मेरे लिए तो सवाल यह है कि सैकड़ों वर्षों में कुछ लोग विकसित हो गए हैं और
कुछ लोग अविकसित रह गए हैं। जो अविकसित वर्ग है, वह बच्चे ज्यादा छोड़ जाए तो
देश की प्रतिभा और बुद्धिमत्ता को भारी नुकसान पहुंच सकता है। बुद्धिमत्ता को
भारी नुकसान पहुंच सकता है। और वह नुकसान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिए उस
दृष्टि से मैं सारे सवाल को सोचता हूं कि केवल परिवार नियोजन ही न हो, बल्कि
ऐसा लगता है कि वह अनिवार्य हो। एक भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए न छोड़ जा सके कि
वह राजी नहीं है। और यह हमें करना ही पड़ेगा। इसे बिना किए हम इन आने वाले 50
वर्षों में जिंदा नहीं रह सकते।
शक्ति के सारे मापदंड बदल गए हैं, यह हमें ठीक से समझ लेना चाहिए। आज
शक्तिशाली वह है जो संपन्न है और संपन्न वह है, जिसके पास जनसंख्या कम है और
उत्पादन के साधन ज्यादा हैं।
आज मनुष्य न तो उत्पादन का साधन है, न शक्ति का साधन है। आज मनुष्य सिर्फ
भोक्ता है, 'कंज्यूमर' है। मशीन पैदा करती है, जमीन पैदा करती है, मनुष्य खा
रहा है।
और धीरे-धीरे जैसे-जैसे टेक्योलॉजी विकसित होती है, आदमी की शक्ति का सारा
मूल्य समाप्त हुआ जा रहा है। आदमी न हो तो भी चल सकता है! एक लाख आदमी जिस
फैक्टरी में काम करते हों, उसे एक आदमी चला सकेगा। और हिरोशिमा में एक लाख
आदमी मारना हो तो उन्हें एक आदमी मार सकेगा। पुराने जमाने में तो कम से कम एक
लाख आदमी ले जाने पड़ते। अब तो कोई एक आदमी जाता है और एटम बम गिराकर उनको
समाप्त कर देता है। कल यह भी हो सकता है कि एक आदमी को भी न जाना पड़े।
कम्प्यूटराइज्ड आदेश एक आदमी भर देगा मशीन मे और काम हो जाएगा। आदमी की
संख्या बिल्कुल महत्वहीन हो गयी है।
यह जरूरी नहीं है कि मेरी सारी बातें मान ली जाएं। इतना ही काफी हैं कि आप
मेरी बात पर सोचें, विचार करें। अगर इस देश में सोच-विचार आ जाए तो शेष चीजें
अपने आप छाया की तरह पीछे चली आएंगी।
मेरी बातें खयाल में लें और उस पर सूक्ष्मता से विचार करे तो हो सकता है कि
आपको यह बोध आ जाए कि परिवार नियोजन की अनिवार्यता कोई साधारण बात नहीं है,
जिसकी उपेक्षा की जा सके। वह जीवन की अनेक-अनेक समस्याओं की गहनतम जड़ों से
संबंधित है। और, उसे क्रियान्वित करने की देरी पूरी मनुष्य-जाति के लिए
आत्मघात सिद्ध हो सकती है।
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